प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 97

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम व्याधि

अच्छा, आखिर यह रोग है क्या? कोई प्रेमी ही बता दे, इसके क्या लक्षण हैं? रोगी को तो जरूर इसका पता होगा। मरीज को तो अपना यह मर्ज बता देना चाहिए। कहो, भाई, यह कैसा होता है? तुम तो इस रोग के अनुभवी हो न? फिर बताते क्यों नहीं? ऐं! क्या कहा कि-

छाती जला करै है सोज़े दरूँ बलासे,
एकआग सी लगी है, क्या जानिये कि क्या है!

क्या जानूँ कि क्या है। अंदर ही अंदर सुलगती हुई आग में छाती जलती रहती है। जिगर में जैसे एक आग सी लगी है। कब नहीं सकता है कि यह क्ला बला है। लो, सुन लिया? मरीज साहब खुद ही परेशान है! एक आग सी सीने में लगी है,- बस, इतना है वह अपने रोग का लक्षण बतला सके हैं। फिर पूछा तो कुछ कह न सके। दिल पर हाथ रखकर बस रो दिया-

पूछा जो मैंने दर्दे मुहब्बत से ‘मीर’ को,
रख हाथ उसने दिल पै टुक इक अपने रो दिया।

कोई होशियार हकीम या कुशल कविराज समझा सके तो हमें समझा दे कि आखिर यह सीने की आग है क्या बला! शायद ही कोई ठीक ठीक समझा सके। हमें तो आशा नहीं। कबीरदासजी तो इन वैद्य हकीमों से बिल्कुल निराश हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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