प्रेम योग -वियोगी हरि
मोह और प्रेमप्रेम कैसा कलंकित हो गया है आज! गरीब इश्क पर कितनी बदनामी लाद दी गयी है! एक महाशय कहते हैं- अर्थात्, प्रेम एक अंधा पथ प्रदर्शक है। जो उसके पीछे पीछे चलते हैं, वे प्रायः अपना निर्दिष्ट मार्ग भूल जाते हैं। आपने बेचारे प्रेम को गुमराह कर देने वाला बताया है। एक साहब फरमाते हैं- खुदा बचाये इस बरबादी के रास्ते से। प्रेम का मार्ग बड़ा बुरा है। देखो न, मीरसाहब प्रेम की आग में जल जलकर अंत में खाक ही तो हो गये हैं। कहते हैं- आग थे इब्तिदाए इश्क में हम, प्रेम के आरंभ में हम आग की भाँति जलते थे, पर अब क्या है, खाक! आज वह जोश नहीं है। प्रेम में शिथिलता आ गयी है। जान पड़ता है, यह प्रेम का अंत है। जो बात तब थी, वह अब नहीं है। क्या सचमुच ही प्रेम ऐसा है? यदि हाँ, तो फिर कौन समझदार प्रेमी बनकर पथभ्रष्ट होना चाहेगा, आशिक होकर जलत जलते खाक बनना चाहेगा? नहीं, प्रेम ऐसा नहीं है। प्रेम तो वह ‘गाइड’ है, जिसे लेकर भूले भटके यात्री भी अपने इष्ट स्थान पर पहुँच जाते हैं। इश्क वह चीज है, जो निकम्मे से निकम्मे को भी संसार का काम का बना देता है। प्रेमी ही सच्चा कर्मयोगी होता है। प्रेम की आग आदि में और अंत में एक सी ही रहती है। न तो वह लगाने से लगती है और न बुझाने से बुझाते बनती है। सदा सुलगती ही रहती है। उस आग में खाक होना कैसा? प्रेम नहीं है साहब, वह मोह है। वह सर्वनाश का स्वप्न देखने वाला कामान्ध मोही है, प्रेमी नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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