प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 15

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मोह और प्रेम

प्रेम कैसा कलंकित हो गया है आज! गरीब इश्क पर कितनी बदनामी लाद दी गयी है! एक महाशय कहते हैं-

Love is a blind guide, and those that follow him, too often lose their way.

अर्थात्, प्रेम एक अंधा पथ प्रदर्शक है। जो उसके पीछे पीछे चलते हैं, वे प्रायः अपना निर्दिष्ट मार्ग भूल जाते हैं। आपने बेचारे प्रेम को गुमराह कर देने वाला बताया है। एक साहब फरमाते हैं-

बुरी है, एक दाग, राहे उलफत, खुदा न ले जाये ऐसे रस्ते।

खुदा बचाये इस बरबादी के रास्ते से। प्रेम का मार्ग बड़ा बुरा है। देखो न, मीरसाहब प्रेम की आग में जल जलकर अंत में खाक ही तो हो गये हैं। कहते हैं-

आग थे इब्तिदाए इश्क में हम,
अब जो हैं खाक इन्तिहा है यह।

प्रेम के आरंभ में हम आग की भाँति जलते थे, पर अब क्या है, खाक! आज वह जोश नहीं है। प्रेम में शिथिलता आ गयी है। जान पड़ता है, यह प्रेम का अंत है। जो बात तब थी, वह अब नहीं है। क्या सचमुच ही प्रेम ऐसा है? यदि हाँ, तो फिर कौन समझदार प्रेमी बनकर पथभ्रष्ट होना चाहेगा, आशिक होकर जलत जलते खाक बनना चाहेगा? नहीं, प्रेम ऐसा नहीं है। प्रेम तो वह ‘गाइड’ है, जिसे लेकर भूले भटके यात्री भी अपने इष्ट स्थान पर पहुँच जाते हैं। इश्क वह चीज है, जो निकम्मे से निकम्मे को भी संसार का काम का बना देता है। प्रेमी ही सच्चा कर्मयोगी होता है। प्रेम की आग आदि में और अंत में एक सी ही रहती है। न तो वह लगाने से लगती है और न बुझाने से बुझाते बनती है। सदा सुलगती ही रहती है। उस आग में खाक होना कैसा? प्रेम नहीं है साहब, वह मोह है। वह सर्वनाश का स्वप्न देखने वाला कामान्ध मोही है, प्रेमी नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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