प्रेम योग -वियोगी हरि
कुछ आदर्श प्रेमीपक्षी है तो क्य हुआ? हम तो उसे जिसे बिरहिणी नायिकाओं के बकीलों ने ‘पापी’ का खिताब दे रक्खा है, एक ऊँचा प्रेमप्रण निबाहने वाला प्राणी मानते हैं। प्रेम की सारी निधि क्या अकेले मनुष्य के ही हिस्से में आ गयी है? चातक की चोटीली चाह का मर्म जिसने समझ लिया उसे प्रेम का तत्व प्राप्त हो गया, ऐसी हमारी दृढ़ धारणा है। कैसी अनुपमेय प्रेमानन्यता है उस पवित्र पक्षी की। प्रेमी पपीहा प्रेम पर जीना ही जानता है, और मरना भी जानता है। प्रेम के रणांग पर हमें तो एक वही सच्चा प्रण वीर देखने में आया है; मरते मर जायेगा, पर अंत तक अपना प्रण भंग न करेगा। क्या ही ऊँचा प्रेम प्रण है! पपिहा पनकों ना तजै, तजै तो तन बेकाज। प्रेम की प्यास में कितनी तड़प है, इसे वह पपीहा ही जानता है। कूप, नदी, तालाब, कुंड आदि जलाशय उसके किस काम के? समुद्र तक तो उसकी प्यास बुझा नहीं सकता। वह तो केवल स्वाति जल का ही प्यासा है। उसकी करुणा भरी पीउ, पीउ की पुकार प्रिय पयोद तक जाय या न जाय, पर वह किसी भांति प्रेम प्रण में पिछड़ने वाला प्राणी नहीं। पियेगा तो स्वाति का ही जल पियेगा, नहीं तो प्यासा ही प्राण त्याग देगा। वाह रे, प्रणवीर! सुन रे तुलसीदास, प्यास पपीहहि प्रेम की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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