प्रेम योग -वियोगी हरि
कुछ आदर्श प्रेमीएक बहेलिये ने किसी पपीहे को बाण मार दिया। घायल पक्षी छटपटाता हुआ गंगा में गिरा। पर उस प्यासे चातक ने मरते समय भी, जगत्पावनी जाह्वी के जल में अपनी चाह भरी चोंच न डुबोयी। टेक निबाहते हुए ही शरीर छोड़ दिया- ब्याधा बध्यो पपीहरा, परय्यौ गंग जल जाय। मरण के उपरान्त भी अन्य जल की चाह न की, पुत्र को भी बार बार यह सिखावन दे गया- ‘तुलसी’ चातक देत सिख, सुतहि बार ही बार। धन्य है प्रेमी पपीहे को! यों तो कितन रंग रंग के विहंग वन में उड़ते फिरते और पोखरियों का पानी पीते हैं, पर, चातक! तुम्हें कौन पा सकता है; तुम तो तुम्हीं हो- डोलत बिपुल बिहंग घन, पियत पोखरनि बारि। कितना पवित्र प्रेम है पपीहे का! कवि रत्न सत्यनारायण की यह क्या अच्छी उक्ति है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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