प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 232

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और तुलसी दास

अहो! तुलसी का दास्य भाव! भक्ति का पूर्ण परिपाक भक्ति भास्कर गोसाईजी की दास्य रति में ही देखा जाता है। इसमें संदेह नहीं कि सेवक सेव्य संबंध का जैसा चारु चित्रण तुलसी के भव्य भावना भवन में दृष्टिगोचर होता है, वैसा अन्यत्र नहीं। इस महामहिम महात्मा का कितना ऊँचा दास्य प्रेम है, कितना गहरा सेव्य भाव है! त्रिताप संतप्त चिरपिपासाकुल परिश्रान्त पथिकों के लिए तुलसी ने, अहा! पुण्यस लिला भक्ति भागीरथी की कैसी करुणामयी धारा बहायी है! ‘विनय पत्रिका’ में वर्णित दास्यरति तो, वास्तव में विश्व साहित्य में एक है, अद्वितीय है। क्या दीनता, क्या भर्त्सना, क्या मान- मर्षता, क्या भयदर्शना आदि सप्त भूमिकाओं में विनय के पद अनुपमेय हैं, अतुलनीय हैं। ‘सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि’ गोसाईंजी की इस दृढ़ धारणा ने उनकी रुचिर रचना की प्रत्येक पंक्ति में दास्य रति का सजीव चित्र अंकित कर दिया है। उनकी सेव्य सेवक भावना को देखकर एक बार तो नीरस से भी नीरस हृदय कह उठेगा कि धन्य है तुलसी की भक्तिभारती! अस्तु!

ज्यों ज्यों तुलीस कृपालु! चरन सरन पावै।

पर वह चरण शरण मिले कैसे! यह मन महान् मूढ़ है। इस मन की कुछ ऐसी मूढ़ता है कि-

परिहरि राम भक्ति सुर सरिता आस करत ओस कनकी!

राम भक्ति भागीरथी को छोड़ यह मूढ़ आज ओस कणों की आशा कर रहा है! इसकी मूढ़ता का कुछ पार! भला, देखो तो-

महा मोह सरिता अपार महँ संतत फिर बह्यौ।
श्रीहरि चरन कमल नौका तजि फिर फिर फेन गह्यौ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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