प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दासअहो! तुलसी का दास्य भाव! भक्ति का पूर्ण परिपाक भक्ति भास्कर गोसाईजी की दास्य रति में ही देखा जाता है। इसमें संदेह नहीं कि सेवक सेव्य संबंध का जैसा चारु चित्रण तुलसी के भव्य भावना भवन में दृष्टिगोचर होता है, वैसा अन्यत्र नहीं। इस महामहिम महात्मा का कितना ऊँचा दास्य प्रेम है, कितना गहरा सेव्य भाव है! त्रिताप संतप्त चिरपिपासाकुल परिश्रान्त पथिकों के लिए तुलसी ने, अहा! पुण्यस लिला भक्ति भागीरथी की कैसी करुणामयी धारा बहायी है! ‘विनय पत्रिका’ में वर्णित दास्यरति तो, वास्तव में विश्व साहित्य में एक है, अद्वितीय है। क्या दीनता, क्या भर्त्सना, क्या मान- मर्षता, क्या भयदर्शना आदि सप्त भूमिकाओं में विनय के पद अनुपमेय हैं, अतुलनीय हैं। ‘सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि’ गोसाईंजी की इस दृढ़ धारणा ने उनकी रुचिर रचना की प्रत्येक पंक्ति में दास्य रति का सजीव चित्र अंकित कर दिया है। उनकी सेव्य सेवक भावना को देखकर एक बार तो नीरस से भी नीरस हृदय कह उठेगा कि धन्य है तुलसी की भक्तिभारती! अस्तु! पर वह चरण शरण मिले कैसे! यह मन महान् मूढ़ है। इस मन की कुछ ऐसी मूढ़ता है कि- राम भक्ति भागीरथी को छोड़ यह मूढ़ आज ओस कणों की आशा कर रहा है! इसकी मूढ़ता का कुछ पार! भला, देखो तो- महा मोह सरिता अपार महँ संतत फिर बह्यौ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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