प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और सूरदाससमझ में नहीं आ रहा है कि यह हठी सूरदास अंगीकृत होने को क्यों इतने उत्कण्ठित और अधीर हो रहे हैं। बात यह है न, कि- जाकों मनमोहन अंग करै। अंगीकृत का कोई बाल भी तो बाँका नहीं कर सकता। दुष्ट कलि उसका क्या बिगाड़ सकता है? वह तो अनायास ही त्रिलोक मेंअभय हो जाता है- जाकों हरि अंगीकार कियो। बड़ा भारी अधिकार है हरि जानों का। अनन्त महिमा है हरिदासों की। पर बेचारा वह अंधा सूर किसी अधिकार का इच्छुक नहीं है। वह तो प्रेम पुलकित होकर केवल इतना ही चाहता है कि उसका चाह से भरा चित्त चंचरीक श्रीकृष्ण के चरण कमलों पर ही सदा मँडराता रहे, उसकी रसना भ्रमरी निरंतर नन्द नन्दन की ललित लीला का मधु पीती रहे और उसके हाथ नित्य हो श्याम सुंदर को कमल दलों की माला बना बनाकर पहनाया करें। यही बस, उसकी एकमात्र हार्दिक कामना है- ऐसो कब करिहौ, गोपाल। इसी में उस दीन गति है और इस में उसकी मुक्ति है। अंधे सूर से पिंड छुड़ाना चाहते हो तो उसकी यह अभिलाषा, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, पूरी कर दो। यों वह तुम्हारे द्वार से हटने वाला नहीं। तुम्हारे लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। क्या मिलेगा तुम्हें कृपणता में? तुम्हें तो उदारता ही शोभा देती है। फिर तुमसे वह ऐसा माँग ही क्या रहा है! बहुत हुआ; अब उस पर दया करो, दया सागर! तुम अनादि अविगत अनंत गुन, पूरन परमानन्द। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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