प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और सूरदासलीजै पार उतारि सूरकों, महाराज व्रजराज। अपने जनों के साथ करते आये हो। मैं यह नहीं कहता कि तुमने मेरे साथ कोई भलाई नहीं की; तुमने नाथ, मेरे साथ अगणित उपकार किये और अब भी करते जा रहे हो। पर मैं ही मूढ़ हूँ। मैंने ही तुम्हारे दिये हुए अनुकूल अवसरों से कोई लाभ नहीं उठाया। मैंने भूल से भी अपनी दुर्बलताओं को कभी स्वीकार नहीं किया। मैं बड़ा कृतघ्न हूँ, नाथ! न जाने, मेरी कौन गति होगी? हा! कौन गति करिहौ मेरी, नाथ! यह जानकर भी कि ‘गरब गोविन्दहिं भावत नाहिं’ मैं हमेशा अभिमान के ही नशे में चूर रहा। यह सुन समझकर भी कि ‘सब जंजाल सु इंद्रजाल सम, ज्यों बाजीगर नटके’ मैंने कभी विषय वासनाओं से मुख नहीं मोड़ा! अधिक क्या कहूँ अपनी मूढ़ता पर करुणालय! मो सम कौन कुटिल खल कामी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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