प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्य और सूरदासइसमें संदेह ही क्या कि ‘तत्व तत्व सूर कही? गजब की थी उस अंधे की सूझ। श्रृंगार और वात्सल्य रस की जो विमल धाराएं प्रेमावतार सूर ने बहायीं, उनमें आज भी विश्व भारती निमज्जन कर अपने सुख सौभाग्य को सराहती है। वात्सल्य वर्णन तो इनका इतना प्रगल्भ और काव्यांग पूर्ण है कि अन्यान्य कवियों की सरस सूक्तियाँ सूर की जूठी जान पड़ती हैं। सूर जैसा वात्सल्य स्नेह का भावुक चित्रकार न भूतो न भविष्यति’- न हुआ है, न होगा। सूर ने यदि वात्सल्य को अपनाया तो वात्सल्य ने भी सूर को अपना एकमात्र आश्रय स्थान मान लिया। सूर का दूसरा नाम वात्सल्य है और वात्सल्य का दूसरा नाम सूर। सूर और वात्सल्य में अन्योन्याश्रय संबंध है। अच्छा, आओ, अब उस बालगोपाल की सूर वर्णित दो चार बाल लीलाएँ देखें। बलराम और कृष्ण माता यशोदा के आगे खेल रहे हैं। सहसा कृष्ण की दृष्टि बलदाऊ की चोटी पर गयी हैं! दाऊ की इतनी लम्बी चोटी और मेरी इतनी छोटी! दूध पीते पीते, अरी, कितने दिन हो गये, फिर भी यह उतनी ही छोटी है! मैया, तू तो कहा करती थी कि दाऊ की चोटी की तरह, कन्हैया! तेरी भी लम्बी और मोटी चोटी हो जायेगी। पर वह कहाँ हुई, मेरी मैया! तू मुझे कच्चा दूध देती है, सो भी खिझा-खिझाकर। तू माखन रोटी तो देती ही नहीं। अब तू ही बता, चोटी कैसे बढ़े? बाल स्पर्धाका कैसा सुंदर भाव है! तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लाँबी मोटी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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