प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम में अनन्यताभगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- अनन्याश्रिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। अनन्यभाव से जो मेरा निरंतर चिंतन करते हैं, मेरी एकान्त उपासना करते हैं, उन नित्ययोग युक्त पुरुषों के योग और क्षेम को मैं स्वयं ही धारण करता हूँ। उनके साधन और साध्य दोनों की ही मैं रक्षा करता हूँ, उनका सारा उत्तरदायित्व मैं अपने ऊपर ले लेता हूँ; पर होनी चाहिए वह उपासना अनन्यभावेन। यह अनन्यभाव है क्या वस्तु! अनन्यता ऐसी कौन- सी महासाधना है, जिस पर स्वयं भगवान् का भी इतना अधिक विश्वास है? जिस भावना के द्वारा चराचर जगत् में एक ही प्रियतम दिखायी दे, उस एक को छोड़ दूसरे की कल्पना भी न मन में उठे, वही अनन्यता है। सुकवि ठाकुर ने नीचे के पद्य में अनन्यता की कैसी विशद व्याख्या की है- कानन दूसरो नाम सुनैं नहिं, एक ही रंग रँग्यो यह डोरो। जिनमें उस प्यारे साँवलें के लिए ठौर नहीं, जिन्होंने उसके श्यामरूप को अपना काजल नहीं बना लिया, जो उस काले रंग में तल्लीन न होकर गोराई पर मर रही हैं, वे आँखे भी भला, कोई आँखें हैं! उनका तो फूट जाना ही अच्छा है। उन अभागिनी आँखों को जरूर मोह की ग में जल जाना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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