प्रेम योग -वियोगी हरि
दीनों पर प्रेमहम नाम के ही आस्तिक हैं। हर बात में ईश्वर का तिरस्कार करके ही हमने ‘आस्तिक’ की ऊँची उपाधि पायी है। ईश्वर का एक नाम ‘दीनबंधु’ है। यदि हम वास्तव में आस्तिक हैं, ईश्वर भक्त हैं तो हमारा यह पहला धर्म है कि दीनों को प्रेम से गले लगावें, उनकी सहायता करें, उनकी सेवा करें, उनकी शुश्रूषा करें। तभी न दीनबंधु ईश्वर हम पर प्रसन्न होगा! पर ऐसा हम कब करते हैं? हम तो दीन दुर्बलों को ठुकरा ठुकराकर ही आस्तिक या दीनबंधु भगवान् के भक्त आज बने बैठे हैं। दीनबंधु की ओट में हम दीनों का खासा शिकार खेल रहे हैं। कैसे अद्वितीय आस्तिक हैं हम! न जाने क्या समझकरर हम अपने कल्पित ईश्वर का नाम दीनबंधु रक्खे हुए हैं, क्यों इस रद्दी नाम से उस लक्ष्मीकांत का स्मरण करते हैं- दीननि देखि घिनात जे, नहि दीननि सों काम। यह हमने सुना अवश्य है कि त्रिलोकेश्वर श्रीकृष्ण की मित्रता और प्रीति सुदामा नाम के एक दीन दुर्बल ब्राह्मण से थी। यह भी सुना है कि भगवान् यदुराज ने महाराज दुर्योधन का अतुल आतिथ्य अस्वीकार कर बड़े प्रेम से गरीब विदुर के यहाँ साग भाजी का भोग लगाया था। पर यह बातें चित्त पर कुछ बैठती नहीं। रहा हो कभी ईश्वर का दीनबंधु नाम, पुरानी सनातनी बात है, कौन काटे। पर हमारा भगवान्, दीनों का भगवान् नहीं है। हरे हरे! वह उन घिनौनी कुटियों में रहे जायेगा? वह रत्न जटित स्वर्ण सिंहासन पर विराजनेवाला ईश्वर उन भुक्खड़ कंगलों के फटे कटे कम्बलों पर बैठने जायेगा? वह मालपुआ और मोहनभोग आरोगने वाला भगवान् उन भिखारियों की रूखी सूखी रोटी खाने जायेगा। कभी नहीं हो सकता। हम अपने बनवाये हुए विशाल राज मंदिरों में उन दीन दुर्बलों को आने भी न देंगे। उन पततों और अछूतों की छाया तक हम अपने खरीदे हुए खास ईश्वर पर न पड़ने देंगे। दीन दुर्बल भी कहीं ईश्वरभक्त होते सुने हैं? ठहरो ठहरो, यह कौन गा रहा है? ठहरो, जरा सुनो। वाह! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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