प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमी का हृदयप्रेम शून्य हृदय को हम कैसे हृदय कहें। हृदय तो वही, जो प्रेम रस से परिपूर्ण हो। सच पूछा जाय तो प्रेम का दूसरा नाम हृदय है, और हृदय का दूसरा नाम प्रेम। हृदयवान् अवश्य प्रेमी होगा और प्रेमी जरूर सहृदय होगा। प्रेमी पीर का मर्म हृदयवान् ही जानता है। इश्क की दीवानगी का मजा दिलदार ही उठा जानता है। अजी, जिस दिल में किसी के लिए दीवानगी न हो, वह दिल, मेरी अदना राय में, दिल ही नहीं। कहा भी है- वह सर नही, जिसमें कि हो सौदा ना किसी का, कितना करुणार्द्र और कोमल होता है प्रेमी का प्रमत्त हृदय! भावुकता ही भावुकता भरी होती है उसके अमल अंतस्तल में। प्रेम की सरसता उस पगले के हृदय में इतनी अधिक भर जाती है कि वह उसकी मस्तानी, रंगीली आँखों में छलकने लगती है। अहा! कैसा होता होगा वह प्रेमपूर्ण हृदय, कैसी होती होंगी वह मतवाली आँख हिरदै माहीं प्रेम जो नैनों झलकै आय। क्यों न उस मतवाले दिलवाले के पैर चूम लिये जायँ। क्यों न उस दर्दवन्त संत की जूतियाँ उठाकर सर पर रख ली जायँ। भाई, इसमें संदेह ही क्या कि हृदय न होता तो प्रेम भी न होता- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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