प्रेम योग -वियोगी हरि
सख्यपरमात्मा के प्रति सखा भाव का भी प्रेम धन्य है। सख्य रस में शान्त और दास्य दोनों रसों का समावेश हो जाता है। भक्त के अंतस्तल में भगवान् के असीम गौरव और उनकी अनन्त कृपा का जो भाव उदित होता है वह शान्त रस को प्रकट करता है और जो सेवा की भावना उसके हृदयतल में उद्वेलित होती है उससे दास्य रस व्यक्त होता है। और, विश्वास का तो सख्य में प्राधान्य है ही। सख्य का पर्याय हृदयैक्य है। सखा, सखा से कोई भेद छिपा नहीं रखता। एक दूसरे से परदा नहीं रखता। जिसको तन मन और सर्वस्व सौंप दिया, जिसे अपने हृदय में बसा लिया, उससे फिर किस बात का परदा रक्खा जाय? कहा भी है- जेहि ‘रहीम’ तन मन दियौ, कियौ हिये बिच भौन। सहृदय सखा से अपने दोष और पाप कह देने से जी हल्का हो जाता है। पर दिल की सफाई वहीं देनी चाहिए, जहाँ कोई दुविधा न हो। जब तक भेदबुद्धि है, तब तक विश्वास कहाँ, और जहाँ विश्वास नहीं, वहाँ सुख शान्ति कहाँ? अतः सख्य भाव में विश्वास या अभिन्नत्व ही मुख्य है। भगवान् भी अपने अभिन्न मित्र से कोई भेद छिपा नहीं रखते। मित्र के आगे आप गूढ़ रहस्य खोलकर रख देते हैं। मित्रवर अर्जुन से भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। हे पार्थ! यह वही प्राचीनतम योग मैंने तुमसे कहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और सखा हो। यही योगशास्त्र का उत्तम रहस्य है। कैसा ही गोपनीय रहस्य हो, अभिन्न हृदय सखा तो वह बताना ही पड़ेगा। भला उससे कोई बात छिपी रह सकेगी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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