प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम महिमाकिसकी वाणी में सामर्थ्य है, जो हे जगदाराध्य प्रेमदेव! तेरो अवर्णनीया महिमा का यथार्थ गायन गा सके। थन्य है तेरी अनिर्वचनीय गाथा! धन्य हैं तेरे अतर्क्य और अचिन्त्य रहस्य! धन्य है तेरी अतुलनीय शक्ति! कौन कह सकता है तेरी अकथनीय कथा को? जो आवै तौ जाय नहिं, जाय तौ आवै नाहिं। श्रीकृष्ण सखा उद्धव सुरेंद्र गुरु वृहस्पति के शिष्य थे। महान् तत्वज्ञानी थे। उन्हें अपने प्रकाण्ड दार्शनिक ज्ञान का अखण्ड अभिमान था। गर्व गंजन गोपाल कृष्ण ने अपने तत्ववेत्ता मित्र से प्रसंगवश एक दिन कहा कि भाई! मेरे वियोग में अत्यंत व्याकुल व्रज वासियों को ज्ञानोपदेश देकर क्या तुम उनकी विरह व्यथा दूर न कर सकोगे। मेरा तो विश्वास है कि तुम अवश्य ही उन गँवार गोप गोपियों के डावोँडोल चित्त को मेरी ओर से हटाकर परमार्थ में लगा दोगे। सो- उद्धव! यह मन निश्चय जानो। अब, विलम्ब करने का समय नहीं है। विरह नदी में मेरे प्यारे व्रज वासी डूबते जा रहे होंगे। सो, भैया, दया करके उन सांसारिक मूढ़जनों को अपने ज्ञानोपदेश का अवलम्बन देकर शीघ्र ही बचा लो। जाकर उनसे कहो कि बिना ब्रह्मात्मैक्य के मुक्ति प्राप्त न हो सकेगी। द्वारकाधीश के द्वारा प्रोत्साहित होकर अपने अगाध तत्वज्ञान में निमग्न महात्मा उद्धव व्रजवासियों को पट्ट शिष्य बनाने चले। व्रज देश में आपका स्वागत तो अच्छा हुआ, पर आपके महँगे तत्वज्ञान को किसी ने साग पात के भी मोल न खरीदा! बड़ी फजीहत हुई। आये थे औरों को मूँड़ने, पर खुद मुँड़ चले! अबलाओं के निर्बल प्रेम ने आपके प्रबल प्रचण्ड ज्ञान को पछाड़ दिया। गोपियाँ ज्ञानिराज उद्धव से कहती हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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