प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 342

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम महिमा

किसकी वाणी में सामर्थ्य है, जो हे जगदाराध्य प्रेमदेव! तेरो अवर्णनीया महिमा का यथार्थ गायन गा सके। थन्य है तेरी अनिर्वचनीय गाथा! धन्य हैं तेरे अतर्क्य और अचिन्त्य रहस्य! धन्य है तेरी अतुलनीय शक्ति! कौन कह सकता है तेरी अकथनीय कथा को?

जो आवै तौ जाय नहिं, जाय तौ आवै नाहिं।
अकथ कहानी प्रेम की, समुझि लेहु मनमाहिं।।

श्रीकृष्ण सखा उद्धव सुरेंद्र गुरु वृहस्पति के शिष्य थे। महान् तत्वज्ञानी थे। उन्हें अपने प्रकाण्ड दार्शनिक ज्ञान का अखण्ड अभिमान था। गर्व गंजन गोपाल कृष्ण ने अपने तत्ववेत्ता मित्र से प्रसंगवश एक दिन कहा कि भाई! मेरे वियोग में अत्यंत व्याकुल व्रज वासियों को ज्ञानोपदेश देकर क्या तुम उनकी विरह व्यथा दूर न कर सकोगे। मेरा तो विश्वास है कि तुम अवश्य ही उन गँवार गोप गोपियों के डावोँडोल चित्त को मेरी ओर से हटाकर परमार्थ में लगा दोगे। सो-

उद्धव! यह मन निश्चय जानो।
मन क्रम बचन मैं तुम्हें पठावत, ब्रज को तुरत पलानो।।
पूरनब्रह्म, सकल, अबिनासी, ताके तुम हौ ज्ञाता।
रेख न रूप, जाति कुल नाहीं, नहिं जाके पितु माता।।
यह मत दै गोपिनुकों आवहु, बिरह नदी में भासति।
'सूर' तुरत यह जाय कहौ तुम, 'ब्रह्म बिना नहिं आसति।।'

अब, विलम्ब करने का समय नहीं है। विरह नदी में मेरे प्यारे व्रज वासी डूबते जा रहे होंगे। सो, भैया, दया करके उन सांसारिक मूढ़जनों को अपने ज्ञानोपदेश का अवलम्बन देकर शीघ्र ही बचा लो। जाकर उनसे कहो कि बिना ब्रह्मात्मैक्य के मुक्ति प्राप्त न हो सकेगी। द्वारकाधीश के द्वारा प्रोत्साहित होकर अपने अगाध तत्वज्ञान में निमग्न महात्मा उद्धव व्रजवासियों को पट्ट शिष्य बनाने चले। व्रज देश में आपका स्वागत तो अच्छा हुआ, पर आपके महँगे तत्वज्ञान को किसी ने साग पात के भी मोल न खरीदा! बड़ी फजीहत हुई। आये थे औरों को मूँड़ने, पर खुद मुँड़ चले! अबलाओं के निर्बल प्रेम ने आपके प्रबल प्रचण्ड ज्ञान को पछाड़ दिया। गोपियाँ ज्ञानिराज उद्धव से कहती हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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