प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमाश्रुप्रेम का आँसू खुद छलकर न जाने और क्या क्या छलका जाता है। उस एक ही बूँद मे सारा का सारा भव सिन्धु समाया हुआ है। अकथनीय है उस प्यारी बूँद की महिमा। जिस आँख ने प्रेम का आसूँ नहीं बहाया, उसके ‘मीन कंज कंजन’ समान होने से कोई लाभ! उस नीरस आँख का तो फूट जाना ही अच्छा प्रेमी हरिश्चंद्र ने सच कहा है- फूट जायँ वे आँखें जिनसे बँधा अश्क का तार नहीं। उस्ताद जौक़ भी तो यही बात कह रहे हैं- इससे सराहना तो उसी आँक की होनी चाहिए, जो प्रेम के आँसुओं से सदा भीगी और भरी रहे। प्रेमपूर्ण करुणा कणों को बिखेरने वाली आँख ही सौंदर्य की प्रभा धारण कर सकती हैं। बेनम चश्म को हम कमल की पंखड़ी कैसे कहें! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज