प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमी का मनक्यों बेचारे मन के ही मत्थे सारे दोष मढ़ रहे हो? मन क्या दोषों का ही आगार है, गुण क्या उसमें एक भी नहीं? क्या वह केवल बंधन का ही कारण है, मुक्ति का हेतु नहीं है? माना कि वह चंचल है, चुलबुला है, एक ठौर रमता नहीं, पर क्या उसे तुम प्रेम की डोरी से बाँधकर किसी ऐसी जगह ठहरा नहीं सकते, जहाँ से भागने का वह फिर कभी नाम न ले? यह ठीक है कि वह रूई की तरह व्यर्थ ही जहाँ तहाँ उड़ता फिरता है, वजन में बहुत ही हल्का है, फिर भी उसका नाम चालीस सेरा ‘मन’ रख दिया गया है- उड़त फिरत जो तूल सम जहाँ तहाँ बेकाम। पर वह मन हाथ में आ सकता है, वश में किया जा सकता है। मन पक्षी तभी तक इधर उधर उड़ता फिरता है, जब तक वह विषय वासनाओं में लिप्त हो रहा है। प्रेमरूपी बाज के चक्कर में आते ही वह चंचल पक्षी अपनी सारी उछल कूद भूल जाता है- मन पंक्षी तबलगि उड़ै विषय बासना माहि। प्रेम का बाज उसे मारता नहीं, उसका केवल काया कल्प कर देता है। एक ही झपट में कौए को हंस बना देता है। कबीर साहब कहते हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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