प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमी का मनपहले यह मन काग था, करता जीवन घात। अब आ गया होगा सारा भेद समझ में। मन को कौन बुरा कहेगा? कहा है- ‘कबिरा’ मन परबत हता, अब मैं पाया कानि। प्रेम की टाँकी लगाने की ही देर है। जितना आनन्द रूपी कंचन चाहो उतना ले सकते हो। अतएव मन बंधन का ही नहीं, मोक्ष का भी कारण है। विषयी मन जीव को जगज्जाल में फँसाता है, तो प्रेमी मन उसे बंधन मुक्त कर देता है। निस्संदेह विषय विहारी मन महान् मोहकारी और दारुण दुखदायी है। विषयों की ओर उसे क्यों जाने देते हो? उसे तो जितनी जल्दी हो सके अथाह प्रेम पयोधि में डुबा दो, नहीं तो पीछे तुम भी महाकवि देव की तरह पछताते ही रह जाओगे- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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