प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 183

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमी का मन

ऐसो जो हौं जानतो, कि जै है तू बिषैके संग,
एरे मन मेरे, हाथ पाँव तेरे तोरतो;
आजुलौं हौं कत नर नाहन की नाहीं सुनि,
नेहसों निहारि हारि बदन निहोरतो।
चलन न देतो देव चंचल अचल करि
चाबुक चितावनीन मारि मुँह मोरतो;
मारो प्रेम पाथर नगारो दै गरे सों बाँधि
राधा बर बिरुद के बारिधि में बोरतो।

कहते हैं- मैं यह जानता होता कि तू मुझे त्यागकर विषयों के हाथ चला जायेगा, तो रे मेरे मन! मैं तो तभी तेरे हाथ पैर तोड़ कर तुझे लूला लंगड़ा कर डालता। तेरे कारण आज तक न जाने कितने नर पतियों की नाहीं सुननी पड़ी है। सोतो न सुननी पड़ती, उनके मुख की ओर तो न ताकना पड़ता! ऐसा जानता तो तेरी सारी चंचलता भुला देता, तुझे अचल कर देता। चेतावनी के चाबुक मार मारकर तुझे विषय पथ से लौटा ही लेता। अरे, बड़ी भूल हुई। तुझे तो मैं डंके की चोट से तरे अचल कर देता। चेतावनी के चाबुक मार मारकर तुझे विषय पथ से लौटा ही लेता। अरे, बड़ी भूल हुई। तुझे तो मैं डंके की चोट से तेरे गले में प्रेम का भारी पत्थर बाँधकर श्रीराधिका रमण कृष्ण के विरद वारिधि में डुबा देता तो अच्छा होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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