प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमीप्रेमी के जीवन का अथ और इति आत्म बलिदान में है। प्राणों का सबी को मोह होता है, पर प्रेमी इस व्यापक नियम के अपवाद में आ गया है, आशिक और उसकी जान में सदा से नाइत्तिफाकी चली आयी है। जाँनिसारी ही प्रेमी की जान है। जिसे अपने प्राणों का मोह है, वह प्रेमी का पद पाने योग्य नहीं। पहुँचे हुए प्रेमी सद्गुरु कबीर कहते हैं- यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं। नागरीदासजी का भी ठीक इसी भाव का एक दोहा है- सीस काटिकै भू धरै, ऊपर रक्खै पाव। संतवर पलटूदास के इस कथन में तनिक भी अत्युक्ति नहीं- साहिबका घर दूर, सहज ना जानिए। ओह! कितना दूर है उस मालिक का मकान! सँभल सँभल कर उस प्यारे के जीने पर चढ़ना होगा। जरा ही चुके कि नीचे आये ऐसे गिरे कि हड्डी पसली का भी पता न चलेगा। हाँ, धड़ पर से अपना सर अपने ही हाथ से उतारकर पहले नीचे रख दो, फिर तुम खुशी से उस घर के भीतर पैठ जाओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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