प्रेम योग -वियोगी हरि
एकांकी प्रेमतेरे बन्दे हम हैं खुदा जानता है, यह मैं मानता हूँ कि तेरा दिल मुझसे मिलता नहीं है, फिर भी मैं तुझे प्यार करता हूँ। क्या करूँ, बिना प्रेम किये जी मानता ही नहीं। प्रेम करना मेरा स्वभाव बन गया है। मुझ पर यह अपराध आरोपित किया जा रहा है कि तुम क्यों प्रेम करते हो। इस पर मैं क्या सफाई दूँ- ठहरे हैं हम तु मुजरिम टुक प्यार करके तुमको, कैसे बरी होऊँ इस इल्जाम से! क्या करूं, क्या न करूँ। प्रेम करना मैं कैसे छोड़ दूँ, भाई। कौन विधघि कीजै, कैसे जीजै सो बताइ दीजै, तू मुझसे हमेशा दूर भागता रहे और मैं तुझे चाहता रहूँ- बस, यही मैं तुझसे माँगता हूँ। मैं तुझसे तेरे प्रेम को नहीं मांगता, मैं तो तुझसे तुझको माँगता हूँ- हर सुबह उठके तुझसे माँगूँ हूँ मैं तुझी को, इस भाव में ही मेरे जीवन का अर्थ छिपा है। तू ही बता मैं अपने जीवन को निरर्थक कैसे कर दूँ। प्रेम करने की आदत कैसे छोड़ दूँ यह तो मेरा सहज स्वभाव है। जो बन गया सो बन गया। तू चाहे जो समझे, मैं तो यही समझ बैठा हूँ कि- सो, प्यारे! यह जिंदगी जिस ढर्रे पर चल रही है, उसी पर चलने दे। तू क्यों मेरी फिक्र करता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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