प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम निर्वाहकिसी के साथ प्रेम का संबंध जोड़ लेना तो आसान है, पर जीवन भर उसे एक सा निभा ले जाना बड़ा ही कठिन काम है। प्रेम का निभाना सदाचारियों और शूरवीरों का ही काम है, विषयी और कायरों का नहीं। जहाँ एकांगी और एकरस प्रेम होता है, वहीं प्रेम का उच्च और पवित्र आदर्श देखने में आता है। कबीर साहब एक साखी है- अगिनि आँच सहना सुगम, सुगम खड़ग की धार। प्रेम पात्र की ओर से कैसा ही रूखा और असंतोषजनक व्यवहार क्यों न हो जाय, पर अपनी ओर से तो वही एकरस और अनन्त असीम प्रेम आजीवन स्थिर रहना चाहिए। अपने हृदय में जरा भी प्रेम की कमी आयी कि हम कहीं मुँह दिखाने लायक भी न रहे। प्रेम से पतित होकर न दीन के रहे, न दुनिया के अजी, लौ लगायी सो लगायी। हाथी का दाँत बाहर निकला सो निकला। पर है यह महान् कठिन। इससे तो प्रेम न करना ही अच्छा है। बीच में प्रीति भंग कर देने से तो यही अच्छा है कि प्रीति जोड़े ही नहीं, उस व्याधि का नाम ही न ले। जप, तप, यम नियम ध्यान धारणा आदि तो किसी न किसी भाँति सभी साध सकते हैं, पर प्रेम को एकरस निभा ले जाना किसी विरले ही वीर का काम है। कहा है- ‘तुलसी’ जप तप, नेम व्रत, सब सबही तें होय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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