प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 142

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम निर्वाह

रसिक वर नागरीदासजी तो प्रेम निर्वाह को और भी कठिन बतला रहे हैं। आपकी दृष्टि में ‘कठिन कराल एक नेह कौ निबाहिबो’ ही है। कहते हैं-

गहिबो अकास पुनि लहिबो अथाह थाह
अति बिकराल व्याल काल कौ खेलाइबो;
सेर समसेर धार साहिबो प्रबाह बान,
गज मृगराज द्वै हथेरिन लराइबो।
गिरितें गिरन, ज्वाल माल में जरन, और
कासी में करौट, देह हिममें गराइबो;
पीबो बिष बिषम कबूल, कबि ‘नागर पै
कठिन कराल एक नेह कौ निबाहिबो।।’

दो या चार दिन के लिए तो सभी प्रेमी बन जाते हैं। पर उनका प्रेम ‘चार दिनन की चाँदनी, फेरि अँधेरो पाख’ के समान होता है। अजी, फिर कौन किसकी याद रखता है। दुनियाबी नेह का नशा चार ही दिन रहता है। असल में उस प्रेम को प्रेम कहना ही मूर्खता है। प्रेम में क्षणभंगुरता कहाँ, अनित्यता कहाँ? यह तो मोह का लक्षण है। प्रेम तो स्थायी, नित्य और अपरिवर्तनशील होता है। तभी तो उस खड्ग व्रत का पालन करना परम दुष्कर है। कविवर रसिक विहारी ने इस असि धारा व्रत की कठिनाइयों का कैसा सजीव वर्णन किया है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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