प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम निर्वाहरसिक वर नागरीदासजी तो प्रेम निर्वाह को और भी कठिन बतला रहे हैं। आपकी दृष्टि में ‘कठिन कराल एक नेह कौ निबाहिबो’ ही है। कहते हैं- गहिबो अकास पुनि लहिबो अथाह थाह दो या चार दिन के लिए तो सभी प्रेमी बन जाते हैं। पर उनका प्रेम ‘चार दिनन की चाँदनी, फेरि अँधेरो पाख’ के समान होता है। अजी, फिर कौन किसकी याद रखता है। दुनियाबी नेह का नशा चार ही दिन रहता है। असल में उस प्रेम को प्रेम कहना ही मूर्खता है। प्रेम में क्षणभंगुरता कहाँ, अनित्यता कहाँ? यह तो मोह का लक्षण है। प्रेम तो स्थायी, नित्य और अपरिवर्तनशील होता है। तभी तो उस खड्ग व्रत का पालन करना परम दुष्कर है। कविवर रसिक विहारी ने इस असि धारा व्रत की कठिनाइयों का कैसा सजीव वर्णन किया है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज