प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहसद्गुरु कबीर की एक साखी है- बिरह अगिन तन मन जला, लागि रहा ततजीव। विरह की अग्नि से जब स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही शरीर भस्मी भूत हो चुके, तब कहीं इस प्रेमविभोर जीव का उस परम प्रियतत्व से तादात्म्य हुआ। इस विरहानल दाह का आनन्द या तो विरहिणी ली लूटती है और या वह सुहागिनी, जिसकी अपने वियुक्त प्रियतम से भेंट हो चुकी है। महात्मा कबीर की एक और साखी विरह तत्व का समर्थन कर रही है- बिरहा कहै कबीरसों, तू जनि छाड़ै मोहि। इसमें संदेह नहीं कि आत्यन्तिक विरहासक्ति ही प्रेम की सबसे ऊँची अवस्था है। प्रेम की परिपुष्टि विरह से ही होती है, विरह एक तरह का पुट है। बिना पुट के वस्त्र पर रंग नहीं चढ़ता। सूरदासजी ने क्या अच्छा कहा है- ऊधो, बिरहा प्रेम करै। जब तक घड़े ने अपना तन, अपना अहंकार नहीं जला डाला, तब तक कौन उसके हृदय में सुधा रस भरने आयेगा? विरहाग्नि में जलकर शरीर मानो कुंदन हो जाता है। मन का वासनात्मक मैल जलकर उसे विरह ही निर्मल करता है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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