प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 147

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम और विरह

बिरह अगिन जरि कुंदन होई। निरमल तन पावै पै सोई।। - उस्मान

बिना विरह के प्रेम की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इसी तरह बिना प्रेम के विरह का भी अस्तित्व नहीं है। जहाँ प्रेम है, वहाँ विरह है। प्रेम की आग को विरह पवन ही प्रज्वलित करता है। प्रेम के अंकुर को विरह जल ही बढ़ाता है। प्रेम दीपक की बाती को यह विरह ही उसकाता रहता है-

जहाँ प्रेम तहँ विरहा जानहु। बिरह बात जनि लघु करि मानहु।।
जेहि तन प्रेम आगि सुलगाई। बिरह पौन होइ दे सुलगाई।।
प्रेम अंकूर जहाँ सिर काढ़ा। बिरह नीर सों छिन छिन बाढ़ा।।
प्रेम दीप जहँ जोति दिखाई। बिरह देई छिन छिन उसकाई।। - उस्मान

इसी से तो कहा गया है कि-

धन सो धन जेहि बिरह बियोगू। प्रीतम लागि तजै सुख भोगू।। - नूरमुहम्मद

विरह यदि ऐसा ही सुखदायी है, तो फिर विरही दिन रात रोया क्यों करता है? यह न पूछो; भाई, विरह की वेदना मधुमयी होती है। उसमें रोना भी रुचिकर प्रतीत होता है। अपने बिछुड़े हुए प्यारे का ध्यान आते ही हृदय में एक ज्वाला उठती है, फिर भी वह बिरही उसी का ध्यान करता रहता है। प्रेम रत्न के जौहरी जायसी को इस जलने भुनने की अच्छी जानकारी थी। उस विरहानुभवी साधक ने क्या अच्छा कहा है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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