प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहबिना विरह के प्रेम की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इसी तरह बिना प्रेम के विरह का भी अस्तित्व नहीं है। जहाँ प्रेम है, वहाँ विरह है। प्रेम की आग को विरह पवन ही प्रज्वलित करता है। प्रेम के अंकुर को विरह जल ही बढ़ाता है। प्रेम दीपक की बाती को यह विरह ही उसकाता रहता है- जहाँ प्रेम तहँ विरहा जानहु। बिरह बात जनि लघु करि मानहु।। इसी से तो कहा गया है कि- विरह यदि ऐसा ही सुखदायी है, तो फिर विरही दिन रात रोया क्यों करता है? यह न पूछो; भाई, विरह की वेदना मधुमयी होती है। उसमें रोना भी रुचिकर प्रतीत होता है। अपने बिछुड़े हुए प्यारे का ध्यान आते ही हृदय में एक ज्वाला उठती है, फिर भी वह बिरही उसी का ध्यान करता रहता है। प्रेम रत्न के जौहरी जायसी को इस जलने भुनने की अच्छी जानकारी थी। उस विरहानुभवी साधक ने क्या अच्छा कहा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज