प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और सूरदासदास्य प्रेम के कुशल कलाकारों में तुलसी के बाद सूर का हो स्थान है। जैसे वात्सल्य प्रेम में सूर के बाद तुलसी का नाम लिया जाता है, वैसे ही दास्य प्रेम में तुलसी के बाद सूर का नम्बर आता है। कहीं कहीं तो वात्सल्य की भाँति दास्य में भी इन युगल महात्माओं का भावसाम्य देखते ही बनता है। अंतर केवल इतना ही है कि तुलसी की दास्य रति विशुद्ध दास्य रति है और सूर की कुछ सख्य रति मिश्रित। अस्तु, विनय की दीनता, मानमर्षता आदि सप्त भूमिकाओं का भक्तवर सूरदास ने भी सुचारू चित्रण किया है। दैन्य तो बड़ा ही भावमय है। सूर का यह दैन्य, देखिये कैसा हृदयस्पर्शी है! कहते हैं- नाथ जू, अबकै मोहिं उबारो। नाथ! आज है तुम्हारी उद्धारिणी शक्ति की कठिन परीक्षा! देखना है, आज मेरा तुम कैसे उद्धार करते हो। मैं कोई ऐसा वैसा पापी तो हूँ नहीं। मैं एक प्रसिद्ध पातकी हूँ, प्रसिद्ध। असाधारण पापी हूँ! सचमुच, महाराज! मैं एक अनुपम अद्वितीय पतित हूँ। बड़े से बड़े पापी भी मेरे पापों की तोल में पसंगा ठहरेंगे। वह बेचारा अजामेल, अरे, वह है ही क्या। मेरा ब्रह्माण्ड विख्यात नाम सुनकर बड़े से भी बड़े नारकीय भयभीत हो भाग जाते हैं। और, यमराज अपने नरक नगर के फाटक पर ताला लगा देता है। प्रभो! मैं ऐसा महान् पातकी हूँ। आज तक जितने कुछ पापियों का तुमने उद्धार किया है, उन सबका मैं सम्राट हूँ। ऐसा कौन प्रतापी पातकी है, जो मेरी बराबरी कर सके। मैं समस्त पापियों पर विजय प्राप्त कर चुका हूँ। अब भी नित्य नये नये पाप करता हूँ। मेरी सवारी के साथ साथ सहज भाव से ही पातकों की चतुरंगिणी सेना आगे- आगे चलती है। और काम, क्रोध के रणवाद्य बजते जाते हैं। निन्दा का राजछत्र मेरे मस्तक पर लगा रहता है। मेरा दम्भ दुर्ग बड़ा दृढ़ है। उसके चारों ओर कपट का कोट बना हुआ है। मेरे उन दुर्जय दुर्ग द्वारों का किसे पता है? मेरा विश्व विजयी नाम सुनकर नरक भी थरथर काँपने लगता है। यमपुर में तहलका मच जाता है। ऐसा हूँ मैं पापाधिराज! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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