प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 223

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और सूरदास

दास्य प्रेम के कुशल कलाकारों में तुलसी के बाद सूर का हो स्थान है। जैसे वात्सल्य प्रेम में सूर के बाद तुलसी का नाम लिया जाता है, वैसे ही दास्य प्रेम में तुलसी के बाद सूर का नम्बर आता है। कहीं कहीं तो वात्सल्य की भाँति दास्य में भी इन युगल महात्माओं का भावसाम्य देखते ही बनता है। अंतर केवल इतना ही है कि तुलसी की दास्य रति विशुद्ध दास्य रति है और सूर की कुछ सख्य रति मिश्रित। अस्तु, विनय की दीनता, मानमर्षता आदि सप्त भूमिकाओं का भक्तवर सूरदास ने भी सुचारू चित्रण किया है। दैन्य तो बड़ा ही भावमय है। सूर का यह दैन्य, देखिये कैसा हृदयस्पर्शी है! कहते हैं-

नाथ जू, अबकै मोहिं उबारो।
पतितन में बिख्यात पतित हौं, पावन नाम तुम्हारो।।
बड़े पतित नाहिन पासंगहुँ, अजामेल को बिचारो।
भाजै नरक नाम सुनि मेरो, जमहु देय हठि तारो।।

नाथ! आज है तुम्हारी उद्धारिणी शक्ति की कठिन परीक्षा! देखना है, आज मेरा तुम कैसे उद्धार करते हो। मैं कोई ऐसा वैसा पापी तो हूँ नहीं। मैं एक प्रसिद्ध पातकी हूँ, प्रसिद्ध। असाधारण पापी हूँ! सचमुच, महाराज! मैं एक अनुपम अद्वितीय पतित हूँ। बड़े से बड़े पापी भी मेरे पापों की तोल में पसंगा ठहरेंगे। वह बेचारा अजामेल, अरे, वह है ही क्या। मेरा ब्रह्माण्ड विख्यात नाम सुनकर बड़े से भी बड़े नारकीय भयभीत हो भाग जाते हैं। और, यमराज अपने नरक नगर के फाटक पर ताला लगा देता है। प्रभो! मैं ऐसा महान् पातकी हूँ। आज तक जितने कुछ पापियों का तुमने उद्धार किया है, उन सबका मैं सम्राट हूँ। ऐसा कौन प्रतापी पातकी है, जो मेरी बराबरी कर सके। मैं समस्त पापियों पर विजय प्राप्त कर चुका हूँ। अब भी नित्य नये नये पाप करता हूँ। मेरी सवारी के साथ साथ सहज भाव से ही पातकों की चतुरंगिणी सेना आगे- आगे चलती है। और काम, क्रोध के रणवाद्य बजते जाते हैं। निन्दा का राजछत्र मेरे मस्तक पर लगा रहता है। मेरा दम्भ दुर्ग बड़ा दृढ़ है। उसके चारों ओर कपट का कोट बना हुआ है। मेरे उन दुर्जय दुर्ग द्वारों का किसे पता है? मेरा विश्व विजयी नाम सुनकर नरक भी थरथर काँपने लगता है। यमपुर में तहलका मच जाता है। ऐसा हूँ मैं पापाधिराज!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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