प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्यअब कैसे छुटै नामरट लागी। तुम मेरे सेव्य हो और मैं तुम्हारा सेवक हूँ- बस, हम दोनों में यही एक संबंध अनन्तकाल पर्यन्त अक्षुण्य बना रहे। पूरी कर देने को कहो तो दास की एक अभिलाषा और है। वह यह है- अहं हरे तव पादैकमूलदासानुदासो भवितास्मि भूयः। अर्थात्, हे भगवन्! मैं बार बार तुम्हारे चरणारविन्दों के सेवकों का ही दास होऊँ। हे प्राणेश्वर! मेरा मन तुम्हारे गुणों का स्मरण करता रहे। मेरी वाणी तुम्हारा कीर्तन किया करे और मेरा शरीर सदा तुम्हारी सेवा में लगा रहे। किसी भी योनि में जन्म लूँ, ‘त्वदीय’ ही कहा जाऊँ, मुझे अपना कहीं और परिचय न देना पड़े। सेवक को इससे अधिक और क्या चाहिए। अंत में यही विनय है, नाथ! अर्थ न धर्म न काम रुचि, गति न चहौं निर्बान। क्यों नहीं कह देते कि ‘एवमस्तु!’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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