प्रेम योग -वियोगी हरि
मधुर रतिमधुर रति के संबंध में तो क्या कहा जाय और क्या लिखा जाय। हम जैसे विषयी और पामर जीव इस परम रस के अधिकारी नहीं। सुना है कि प्रेम रस का पूर्ण परिपाक मधुर रति में ही हुआ है। इसे सर्व प्रेमरतियों का समन्वय कहा है। ‘भक्तियोग’ में लिखा है कि जिस प्रकार आकाशादि महाभूतों के गुण क्रम से, अर्थात् अन्य भूतों में उत्तरोत्तर बढ़कर एक, दो तीन क्रम से, पृथिवी में पाँचों भूतों के गुण हैं, उसी प्रकार मधुर रस में भी सब रस आकर मिल जाते हैं। जीवात्मा और परमात्मा का रस संबंध इस परमरति में पराकाष्ठा को पहुँच जाता है। जीव ब्रह्म का यह दिव्य दाम्पत्य भाव हमारे अन्यतम अनुभव का विषय है। सत्य, शिव और सुंदर का साक्षात्कार इसी रति भाव के द्वारा होता है! आत्मा की वह कितनी मधुमयी और रसमयी अवस्था होगी, प्यारे! जिसमें ‘रसो वै सः’ की प्रत्यक्षानुभूति हो जाती होगी! प्रेमी और प्रिय, भक्त और भगवान् का नित्य सम्मिलन, सतत संयोग कितना मधुरा और कितना आनन्दप्रद न होगा! अहा! वह नित्य विहार! वह मधुर मधु! वह परम रस! वहाँ तृप्ति कैसी और अतृप्ति कैसी! उस ‘पिय’ की झलक जिसे मिल गयी, उसके सुहाग का कुछ पार! प्रिय में अनन्य भाव का पूर्ण अनुभव प्राप्त कर लेना क्या कोई साधारण साधन है? जब उस प्यारे की प्रीति किसी तरह अन्तस्तल- में बिधकर पैठ जाती है, तब फिर वही वही चराचर जगत् में रमा हुआ दिखायी देता है- प्रीति जो मेरे पीव की पैठी पिंजर माहिं। उस ‘एक मेवा द्वितीयम्’ प्यारे के नव मिलन में द्वैत की कल्पना कैसे हो सकती है। प्रेम की इस परमावस्था में ही जीवात्मा को पतिव्रता सती की उपमा दी जाती है। संतों ने उसे सुहागिल भी कहा है। ऐसी जीवात्मा ही प्राणेश्वर प्रियतम की लाड़ली है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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