प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 299

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मधुर रति

मधुर रति के संबंध में तो क्या कहा जाय और क्या लिखा जाय। हम जैसे विषयी और पामर जीव इस परम रस के अधिकारी नहीं। सुना है कि प्रेम रस का पूर्ण परिपाक मधुर रति में ही हुआ है। इसे सर्व प्रेमरतियों का समन्वय कहा है। ‘भक्तियोग’ में लिखा है कि जिस प्रकार आकाशादि महाभूतों के गुण क्रम से, अर्थात् अन्य भूतों में उत्तरोत्तर बढ़कर एक, दो तीन क्रम से, पृथिवी में पाँचों भूतों के गुण हैं, उसी प्रकार मधुर रस में भी सब रस आकर मिल जाते हैं। जीवात्मा और परमात्मा का रस संबंध इस परमरति में पराकाष्ठा को पहुँच जाता है। जीव ब्रह्म का यह दिव्य दाम्पत्य भाव हमारे अन्यतम अनुभव का विषय है। सत्य, शिव और सुंदर का साक्षात्कार इसी रति भाव के द्वारा होता है! आत्मा की वह कितनी मधुमयी और रसमयी अवस्था होगी, प्यारे! जिसमें ‘रसो वै सः’ की प्रत्यक्षानुभूति हो जाती होगी! प्रेमी और प्रिय, भक्त और भगवान् का नित्य सम्मिलन, सतत संयोग कितना मधुरा और कितना आनन्दप्रद न होगा! अहा! वह नित्य विहार! वह मधुर मधु! वह परम

रस! वहाँ तृप्ति कैसी और अतृप्ति कैसी!
‘धरनी’ पलक परै नहीं, पिय की झलक सुहाय।
पुनि पुनि पीवत परम रस, तबहूँ प्यास न जाय।।

उस ‘पिय’ की झलक जिसे मिल गयी, उसके सुहाग का कुछ पार! प्रिय में अनन्य भाव का पूर्ण अनुभव प्राप्त कर लेना क्या कोई साधारण साधन है? जब उस प्यारे की प्रीति किसी तरह अन्तस्तल- में बिधकर पैठ जाती है, तब फिर वही वही चराचर जगत् में रमा हुआ दिखायी देता है-

प्रीति जो मेरे पीव की पैठी पिंजर माहिं।
रोम रोम पिव पिव करै, ‘दादू’ दूसर नाहिं।।

उस ‘एक मेवा द्वितीयम्’ प्यारे के नव मिलन में द्वैत की कल्पना कैसे हो सकती है। प्रेम की इस परमावस्था में ही जीवात्मा को पतिव्रता सती की उपमा दी जाती है। संतों ने उसे सुहागिल भी कहा है। ऐसी जीवात्मा ही प्राणेश्वर प्रियतम की लाड़ली है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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