प्रेम योग -वियोगी हरि
मधुर रतिसोइ सुहागल नारि, पिया मन भावई। कैसा सुंदर श्रृंगार किया है इस विचित्र बाला ने! क्यों न वह अपने पिया की प्राण प्यारो हो। कितना भारी अंतर है इस जीवात्म कान्ता में और लहँगा साड़ी पहनने वाले सखी भाव के स्त्री रूपी जन खेमे! दिव्य कात कान्ता भाव की ओट में सांसारिक श्रृंगारियों ने कैसा मलिन और विकारी विषय भाव व्यक्त किया है। हमारे प्रेम साहित्य का अधिकांश, दुर्भाग्य से, चुंबन आलिंगन की रहः के लियों से ही भरा पड़ा है। क्या कहलाना चाहते हो उस भ्रान्त भावना के संबंध में। उधर की ओर हमारी विचार धारा प्रभावाहित ही न हो, भगवान्! कहाँ तो यह साधारण बाह्य श्रृंगार भाव औ कहाँ वह असाधारण दिव्य मधुरतम प्रेम! कहाँ यह तुम्हारा काम बिलासमय नायक नायिका निरूपण और कहाँ उस घट घट विहारी रमण और उसकी अंतस्तल विहारिणी रमणी का नित्य विहार! संतवर सुंदर दास ने एक साखी में कहा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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