प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 300

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मधुर रति

सोइ सुहागल नारि, पिया मन भावई।
अपने पिय को छोड़, न पर घर जावई।।
नवधा बस्तर पहिर, दया रंग लाल है।
प्रेम के भूषन धारि, बिचित्तर बाल है।।
मंदिर दीपक बारि, बिन बाती घीव की।
सुधर, नेह गुन रासि, लाड़ली पावकी।।

कैसा सुंदर श्रृंगार किया है इस विचित्र बाला ने! क्यों न वह अपने पिया की प्राण प्यारो हो। कितना भारी अंतर है इस जीवात्म कान्ता में और लहँगा साड़ी पहनने वाले सखी भाव के स्त्री रूपी जन खेमे! दिव्य कात कान्ता भाव की ओट में सांसारिक श्रृंगारियों ने कैसा मलिन और विकारी विषय भाव व्यक्त किया है। हमारे प्रेम साहित्य का अधिकांश, दुर्भाग्य से, चुंबन आलिंगन की रहः के लियों से ही भरा पड़ा है। क्या कहलाना चाहते हो उस भ्रान्त भावना के संबंध में। उधर की ओर हमारी विचार धारा प्रभावाहित ही न हो, भगवान्! कहाँ तो यह साधारण बाह्य श्रृंगार भाव औ कहाँ वह असाधारण दिव्य मधुरतम प्रेम! कहाँ यह तुम्हारा काम बिलासमय नायक नायिका निरूपण और कहाँ उस घट घट विहारी रमण और उसकी अंतस्तल विहारिणी रमणी का नित्य विहार! संतवर सुंदर दास ने एक साखी में कहा है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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