विषय सूची
प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रकृति में ईश्वर प्रेमपुण्य प्रभात, सरला संध्या, सुचारू चंद्रोदय, शीतल मन्द सुरभित समीर, पद्मपूर्ण सरोवर, निर्मल निर्झर, कामोद्दीपक वसन्त वैभव आदि प्राकृतिक दृश्यों की माधुरीमय मनोरमता पर अगणित साहित्यिकक सूक्तियों और अनोखी सूझों का हमारे सुकवियों ने एक अनुपम भारती भण्डार भर रक्खा है। निस्संदेह उन कुशल काव्य कलाकारों ने कमाल का प्रकृति चित्रण किया है। गजब की हैं उनकी सूझें। बरबस मुँह से ‘वाह-वाह’ निकल पड़ती है। खासा मनोरंजन हो जाता है। कौन ऐसा अभागा होगा, जो उस नवरसमयी प्रकृति वर्णनों का असीम आनन्द न लूटना चाहेगा? किसी सूक्ति में श्रृंगार की मधुर मादकता मिलेगी, तो किसी में आपको शान्त रस की स्वर्गीय सुधा प्राप्त हो जायेगी। तात्पर्य यह है कि उन सुकवियों का काव्य कौशल देखते ही बनता है। पर खेद है कि हमारा प्रस्तुत विषय, एक प्रकार से, उन मनोरंजिनी सूक्तियों के प्रति उदासीन ही रहेगा। हमारी दृष्टि में तो प्रकृति एक दर्पण है, जिसमें हम सुंदरतम प्रेम का प्रतिबिम्ब देखा करते हैं। नेचर वह आईना है, जिसमें हमें अपनी रूहानी मस्ती की प्यारी सूरत नजर आती है। इस दशा में प्रकृति में ‘मैं’ की ओर ‘मैं’ में प्रकृति की प्यारी झलक देखने को मिला करती है, प्रेम का सागर लहराने लगता है- नशे में जवानी के माशूक नेचर प्रकृति रानी ने यह सारा सुहाग सिंगार मेरे प्रेम को रिझाने के लिये ही सँवारा है। जहाँ देखता हूँ तहाँ मेरा प्रेम ही प्रेम है। प्रकृति के रूप में यह मेरा प्यारा प्रेम ही जहाँ तहाँ दिखायी दे रहा है। प्यारी छबीली नेचर मेरे प्यारे प्रेम पर जान दे रही है। मस्त स्वामी राम झूम झूमकर कैसा गा रहा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज