प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 51

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम में तन्मयता

ज्ञानाभिमानी महापुरुष अद्वैतवाद में ही तन्मयता को स्थान देते हैं। कहते हैं, ब्रह्मात्मैक्य में ही तन्मयता की परिपूर्ण अनुभूति हो तो है। सत्य है, इसे कौन अस्वीकार करेगा, किन्तु हमारा यह निवेदन है कि तन्मयता का अनुभव अन्यत्र भी हो सकता है और होता है। प्रेम संसार में भी हम उसे देखते हैं। प्रीति- वाटिका में भी तल्लीनता को हम लहल ही पाते हैं। अत्युक्ति ही सही, मुबारक हो हमें यह मुबालगा, हम तो तन्मयता की दाश को जिस स्पष्ट रूप में प्रेमियों के दिलों में देखते हैं, उस रूप में ब्रह्मात्मेक्यवादियों को शायद ही कभी वह अनुभव में आती हो। वे कहते हैं, ‘सोऽहमस्मि’- वह मैं हूँ- अथवा ‘तत्वमसि’ वह तू है। यहाँ ‘सः’ और ‘अहम्’ अथवा ‘तत्’ और ‘त्वम्’- इन दो दो शब्दों का फिर भी कुछ न कुछ स्मरण तो रहता ही है, परंतु प्रेमी की तो प्रेम तन्मयता में, भाई! कुछ विलक्षण ही दशा हो जाती है। उसे इतना भी तो खयाल नहीं रहता कि ‘वह’ मुझमें है, या ‘मैं’ उसमें हूँ, वह ‘मैं’ है या मैं ‘वह’ हूँ! तनिक देखो तो इस तदाकारता को-

कान्ह भये प्रानमय, प्रान भये कान्हमय,
हिय में न जानि परै कान्ह है कि प्रान है!

सबसे पहले तो उस मोहन के गुणों में मेरे ये श्रवण जाकर लीन हो गये, फिर उसके रूप सुधा रस में मेरी आँखें डूबकर लापता हो गयीं। जैसे दूध में पानी मिलकर एक रूप हो जाता है, उसी भांति मेरी मति भी रसिकवर व्रजचंद्र की मंद मुसकान, चुभीली चितवन आदि और प्रेम की चतुरता और रसिकता में घुलकर एकरस हो गयी, मेरी मति भी मेरी न रही। अरी! मेरा यह मन भी उस मोहन के माधुर्य पर मुग्ध हो होकर मोहनमय ही हो गया। फिर क्या हुआ, कुछ समझ में नहीं आता। सुध भी नहीं है। कृष्ण प्राणमय हो गये या प्राण कृष्णमय हो गये! कोई बता सकता है, मेरे हृदय में कृष्ण हैं या प्राण? इस दिव्य बाव को अब भावुक कवि की ही पीयूष वर्णिषी वाणी में सुनिये-

पहिले ही जाय मिले गुन में स्रवन, फेरि-
रूप सुधा मधि कीनों नैनहूँ पयान है,
हँसनि, नटनि, चितवनि, मुसुकानि,
सुघराई, रसिकाई मिली मति पय पान है।
मोहि मोहि मोहनमयी री मन मेरो भयो,
‘हरीचंद’ भेद न परत कुछ जान है,
कान्ह भये प्रानमय, प्रान भये कान्हमय,
हिय में न जान परै कान्ह है कि प्रान है।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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