प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम में तन्मयताज्ञानाभिमानी महापुरुष अद्वैतवाद में ही तन्मयता को स्थान देते हैं। कहते हैं, ब्रह्मात्मैक्य में ही तन्मयता की परिपूर्ण अनुभूति हो तो है। सत्य है, इसे कौन अस्वीकार करेगा, किन्तु हमारा यह निवेदन है कि तन्मयता का अनुभव अन्यत्र भी हो सकता है और होता है। प्रेम संसार में भी हम उसे देखते हैं। प्रीति- वाटिका में भी तल्लीनता को हम लहल ही पाते हैं। अत्युक्ति ही सही, मुबारक हो हमें यह मुबालगा, हम तो तन्मयता की दाश को जिस स्पष्ट रूप में प्रेमियों के दिलों में देखते हैं, उस रूप में ब्रह्मात्मेक्यवादियों को शायद ही कभी वह अनुभव में आती हो। वे कहते हैं, ‘सोऽहमस्मि’- वह मैं हूँ- अथवा ‘तत्वमसि’ वह तू है। यहाँ ‘सः’ और ‘अहम्’ अथवा ‘तत्’ और ‘त्वम्’- इन दो दो शब्दों का फिर भी कुछ न कुछ स्मरण तो रहता ही है, परंतु प्रेमी की तो प्रेम तन्मयता में, भाई! कुछ विलक्षण ही दशा हो जाती है। उसे इतना भी तो खयाल नहीं रहता कि ‘वह’ मुझमें है, या ‘मैं’ उसमें हूँ, वह ‘मैं’ है या मैं ‘वह’ हूँ! तनिक देखो तो इस तदाकारता को- कान्ह भये प्रानमय, प्रान भये कान्हमय, सबसे पहले तो उस मोहन के गुणों में मेरे ये श्रवण जाकर लीन हो गये, फिर उसके रूप सुधा रस में मेरी आँखें डूबकर लापता हो गयीं। जैसे दूध में पानी मिलकर एक रूप हो जाता है, उसी भांति मेरी मति भी रसिकवर व्रजचंद्र की मंद मुसकान, चुभीली चितवन आदि और प्रेम की चतुरता और रसिकता में घुलकर एकरस हो गयी, मेरी मति भी मेरी न रही। अरी! मेरा यह मन भी उस मोहन के माधुर्य पर मुग्ध हो होकर मोहनमय ही हो गया। फिर क्या हुआ, कुछ समझ में नहीं आता। सुध भी नहीं है। कृष्ण प्राणमय हो गये या प्राण कृष्णमय हो गये! कोई बता सकता है, मेरे हृदय में कृष्ण हैं या प्राण? इस दिव्य बाव को अब भावुक कवि की ही पीयूष वर्णिषी वाणी में सुनिये- पहिले ही जाय मिले गुन में स्रवन, फेरि- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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