प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम मैत्रीभाई, मित्रता तो बस प्रेममयी। सत्य, नित्य और कल्याण युक्त मैत्री निष्काम और अनन्त प्रेम से ही उत्पन्न होती है। प्रेम मैत्री स्वार्थवासना से मुक्त और स्नेह भावना से बद्ध होती है। स्नेह का एक कोमल तन्तु, इश्क का एक कच्चा धागा दो मजबूत दिलों को बाँधकर एक दिल कर देता है। ऐसी सच्ची दोस्ती में खुदगर्जी के लिए जरा भी जगह नहीं। बदले की भावना वहाँ ढूँढ़ने पर भी न मिलेगी। जिसमें बदला है, वह दोस्ती नहीं, एक तिज़ारत है- दोस्ती और किसी गरज के लिये, मित्रता में तो देने ही देने का भाव है, लेने का नही। बिना किसी प्रकार के लाभ या लोभ के जिसकी मित्रता स्थिर रहती है, वही अपना सच्चा मित्र है। महात्मा कबीरदास ने कहा है- वाही नरको जान तू पूरा अपना मीत। यहाँ रहीम की भी एक सूक्ति याद आ गयी है- यह न ‘रहीम’ सराहिए, देन लेन की प्रीति। तन, धन और मन दे देना तो एक मामूली सी बात है, प्रेमी मित्र को तो, भाई, मित्रता की बलि वेदी पर अपनी प्यारी जान भी हँसते हँसते चढ़ा देनी चाहिए। दोस्ती निभाते हुए मर जाना मरना नहीं, सदा के लिए अमर हो जाना है। कविवर नूरमुहम्मद ने, ‘इन्द्रावती’ में एक स्थल पर कहा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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