प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 131

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम मैत्री

प्रेमी ताकों जानिए, देइ मित्र पर प्रान।
मित्र पंथ पर जिउ दिहं जुग जुग जियै निदान।।

जिन लोगों ने राहेदोस्ती में, मित्रता के मार्ग में, अपने प्राण दे दिये हैं, उनके पवित्र पाद चिह्नों पर संसार अपना मस्तक क्यों न रखे-

जो राहे दोस्ती में, मीर, मर गये हैं,
सर देंगे लोग उनके पा के निशान ऊपर।

स्वार्थ त्याग ही मैत्री का एकमात्र परिपोषक है। जहाँ स्वार्थ है, वहाँ मैत्री कहाँ?

सचमुच स्वार्थी की दोस्ती किसी काम की नहीं। भौंरे और फूल में भी तो मित्रता होती हैं। बेचारा पुष्प पराग पर कैसा पागल हो जाता है! मस्त होकर उस अधखिली कली पर कैसा मँडराता है! पर मधुविहीन सुमन के भी समीप जाते किसी ने कभी उस उन्मत्त मधुप को देखा है? कितने रसपूर्ण पुष्पों को चंचल चंचरीक ने अपना मित्र न बनाया होगा। पर कब तक के लिए? जब तक वे उसे अपने मधु रस का प्रणय उपहार देते रहे। फिर भी आप पुष्प के प्रति लोभी भ्रमर की प्रीति को मित्रता का नाम देते हैं! सुकवि नूरमुहम्मद ने क्या अच्छा कहा है-

खोटी प्रीति भँवर की आहै। भँवर आपनो कारज चाहै।।
आइ भँवात बास रस आसा। लै रस तजत फूल को पासा।
लै रस बास भँवर उड़ि जाई। मरत न जब सुमनस कुम्हलाई।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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