प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम मैत्रीफिर भी ‘प्रेमी ताकों जानिये, देइ मित्र पर प्रान’ इस कसौटी पर आप भौंरे की खोटी मित्रता को कसने जा रहे हैं? भ्रमर की स्वार्थमयी प्रीति कहीं मित्रता का नाम पा सकती है? मित्रता तो, बस, जल के साथ मीन की है। केवल उसे ही ‘देइ मित्र पर प्रान’ की प्राणान्त परीक्षा में आप सर्वप्रथम उत्तीर्ण पायेंगे- धनि ‘रहीम’ गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय। महात्मा सूरदास ने भी मधुकर की स्वार्थमयी मित्रता पर असंतोष प्रकट किया है- मधुकर काके मीत भए? मतलब पूरा हो जाने पर इतना भी तो खयाल नहीं रहता कि वह किसी समय का अपना अभिन्न हृदय मित्र आज कौन और क्या है! कल एक अभिन्न हृदय मित्र था, आज दूसरा है! कल कोई तीसरा जिगरी दोस्त बना लिया जाएगा और परसों चौथा! यह भी भला कोई मित्रता है, कोई प्रीति है। निष्कपट मैत्री निष्काम प्रेमियों में ही पायी जाती है। प्रेम पूर्ण मित्रता में कहीं छल कपट स्थान पा सकता है? कपटी मित्र से तो, भाई, निष्कपट शत्रु ही कहीं अच्छा है। रहीम ने कपटी मित्र की तुलना खीरे के साथ की है और खूब की है। ऊपर से तो एक दीख पड़ता है, पर भीतर अलग अलग तीन फाँकें होती हैं। पर जो सच्चा प्रेमी है, उसका बाहर भीतर एक सा रूप होता है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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