प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम मैत्री‘रहिमन’ प्रीति न कीजिए, जस खीराने कीन। जिसके हृदय तल में प्रेम का अंकुर नहीं उगा, वही कपट का आश्रय लेगा। प्रेम का निवास्थान सत्य में है और कपट का असत्य में। अतः प्रेम और कपट, सत्य और असत्य एक साथ कैसे रह सकते हैं? यह कह देना तो बहुत ही आसान है कि हमारा तुम्हारा मन मिल गया है, अब कौन हमें तुम्हें जुदा कर सकता है? पर मन का मिल जाना है महान् कठिन। जरा सी ठेस लगते ही, हमलोगों के घुले मिले हुए मन एक क्षण में अलग हो जाते हैं। ऐसा सच्चे प्रेम के अभाव से ही होता है। यदि प्रेम ने हमारे दिलों को मिला कर एक कर दिया होता, तो वे विलग होते ही क्यों? इसलिए प्रेम के मिलाये हुए मन ही सच्चे मिले हुए मन हैं- ‘धरनि’ मन मिलिबो कहा, तनिक माहिं बिलगाहिं। मिले हुए दिलों का एक निराला रंग होता है। अपने अपने स्वार्थ को छोड़कर वे प्रेम का रंग धारण कर लेते हैं। हल दी अपनी जर्दी को छोड़ देती है और चना अपनी सफेदी को। दोनों मिलकर प्रेम की एक निराली लाली में रंग जाते हैं। ऐसी तदाकार प्रीति ही परम प्रशंसनीय है- ‘रहिमन’ प्रीति सराहिए, मिले होत रंग दून। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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