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प्रेम योग -वियोगी हरि
लौकिक से पारलौकिक प्रेमकहीं भी हो, कोई भी हो, कुछ भी हो, तुम्हारे जीवन में प्रेम का एक निश्चित लक्ष्य तो, भाई! होना ही चाहिए। बिना किसी प्रेमलक्ष्य के यह जीवन, जीवन नहीं। प्रेम की ऊँची अवस्था तक नहीं पहुँच सके, न सही, कोई चिन्ता नहीं। इतना क्या कम है कि तुम प्रेम करना तो जानते हो, तुम्हारा कोई प्रेम पात्र तो संसार में है। किसी दिन प्रेम की साधना साधते साधते उस ऊँची अवस्था को भी तुम प्राप्त कर लोगे। तुम्हारा यह लौकिक प्रेम, यह इश्कमजाजी जरूर किसी दिन तुम्हें इश्कहकीकी तक पहुँचा देगा। पर इतना याद रहे कि तुम्हारा लौकिक प्रेम भी सच्ची लगन में रँगा हुआ हो। दिली दर्द से भरा हो, चोटीले हृदय की एक कसक हो। इस प्रकार का ही लौकिक प्रेम पारलौकिक प्रेम में परिणत हो सकेगा, अन्यथा वह मोहरूप होकर तुम्हारे पतन का कारण हो जाएगा। पारलौकिक प्रेम प्राप्त नहीं हुआ- इस निराशा से लौकिक प्रेम से भी विमुख हो जाना महामूर्खता है। बिल्कुल ही प्रेम न करने से मोहवश होकर ही किसी से प्रेम करना फिर भी कहीं अच्छा है। एक विद्वान का कथन है- अर्थात्, इसमें संदेह नहीं, कि बुद्धिमानी के साथ प्रेम करना सर्वोत्कृष्ट है, पर बिल्कुल ही प्रेम न करने की अपेक्षा मूर्खता से ही प्रेम करना तो भी कहीं अच्छा है। सारांश यह कि मानव जीवन मेंप्रेम का होना अत्यंत आवश्यक है। या यों कहिये कि प्रेम का ही नाम जीवन है। सौ बात की बात तो यह है कि यदि तुम अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हो कि किसी के हो जाओ, किसी को अपना बना लो। यहाँ आकर कुछ सीखना है तो किसी के होकर ही तुम सीख सकोगे। ज़फर ने क्या अच्छा कहा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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