प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम पंथप्रेम मार्ग के यथार्थ रूप का तो वे भी वर्णन नहीं कर सके जो इस पर चलकर प्यारे की प्यारी झलक पा चुके हैं। अक्षर और मात्राएँ जोड़ने वाले ये कवि भला, इस पंथ का यथार्थ वर्णन कर सकेंगे! इसका रूप मन और वाणी का विषय नहीं है। यह तो केवल अनुभवगम्य है। प्रेम का वर्णन प्रेम ही कर सकता है। प्रेम का पता ही प्रेम ही ला सकता है। प्रेम का चित्र प्रेम ही खींच सकता है। पथिको! इस पथ पर चलने का उद्देश्य किसी विश्रान्ति भवन में टिक रहना नहीं है। इसका उद्देश्य तो वहाँ पहुँचना है जिसके आगे जाने का फिर कोई मार्ग ही नहीं। कवि की वाणी में- इस पथ का उद्देश्य नहीं है पर, सावधान, सँभल-सँभलकर चलना- न्यारो पैंड़ो प्रम का, सहसा धरौ न पाव। कबीर साहब भी तो आगाह कर रहे हैं- समुझि सोच पग धरौ जतन, बार बार डिगि जाय। भाई, इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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