प्रेम योग -वियोगी हरि
मातृ भक्तिअधम अज्ञ अधरूप पतित यह अपनायौ करि प्यार। पर, दयामयि! तू निर्दय नहीं है ऐसा कैसे कहूँ! तू निर्दय है और बड़ी निर्दय है। तूने देख, कबसे मुझे दर्शन नहीं दिया है माँ! हाँ, प्रत्यक्ष दर्शन तूने तबसे कब दिया, माँ! एक ही बार देरा दर्शन चाहता हूँ; दयाकर दे दे- बिन तेरो दरसन भये, यह जीवन भू भार। पर मैं क्या मुँह लेकर तुझसे यह भीख माँगू। कहाँ, मेरी कृतघ्नता और कहाँ तेरी दयालुता! रटत न कबहूँ नाम ढीठ तव ‘हरी’ हठीलो;
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज