प्रेम योग -वियोगी हरि
मातृ भक्तिकियौ दुलार प्यार निसि बासर, जाहि प्रान ज्यों राख्यौ; पर कुछ वश न चला। उस दिन उस पगली माँ ने इस अधम कुपुत्र का परित्याग कर ही दिया। न जाने रुष्ट होकर वह गुरु स्वरुपिणी माता कहाँ चली गयी। रुष्ट कैसे कहूँ। शिव! शिव! मेरी माँ मुझ पर कभी रुष्ट हो सकती है? वह दयामयी वह करुणामयी माँ! हौं सठ हठि नित करी ढिठाई, कबहुँ न आज्ञा मानी; उन चरणों की छाप इस कलुषित मस्तक पर अभी लगी है, यही आश्चर्य है! उस कर कमल की इस अनाथ पर आज भी छाया पड़ रही है। अहोभाग्य मेरा, अहोभाग्य! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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