प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 319

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मातृ भक्ति

जा दिनतें हम तुमतें बिछुरे, काहु न कह्यौ कन्हैया।
कबहूँ प्रात न कियो कलेवा, साँझ न पीन्ही घैया।। - सूर

माँ! तू ही भारती है, तू ही कमला है और तू ही काली है। माँ! तू ही शक्ति है, तू ही भुक्ति है और तू ही मुक्ति है। तू ही जयदा है और तू ही वरदा है। तू ही क्षीरदा है और तू ही अन्नदा है। तीर भूखी प्यासी संतान सदा तेरा ही स्मरण करेगी-

क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति।

किसी को तू नील निचोल धारण करके दर्शन देती है, तो किसी के ध्यान पथ पर श्वत साड़ी पहनकर आ जाती है। पर, माँ! हमें तो तू आज रक्ताम्बर धारण करके ही दर्शन दे। अग्नि वीणा बजाने वाले के ज्वलन्त नेत्रों में तू लाल साड़ी पहनकर ही तो ताण्डव किया करती है। वही ताण्डवनृत्य दिखा दे, पगली माँ! हम तेरी साधना करना क्या जानें। जननि! साधक तो तेरा लाड़ला पुत्र रामकृष्ण परमहंस था। हमलोग तो अभी तक तेरी आज्ञा का रहस्य ही नहीं समझ पाये। हम तो कुपुत्र हैं, माँ! कुपुत्र। क्षमा कर करुणामयि!

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरळोऽहं तव सुतः।
मदीयोऽथं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायते क्वचिदपि कुमाता न भवति।। - शंकराचार्य

माँ! तू मुझे छोड़ रही है? क्या यह त्याग तुझे शोभा देगा? मुझे तो विश्वास नहीं होता कि तू मेरा वस्तुतः परित्याग कर ही देगी। क्या हुआ जो मैं कुपुत्र हूँ। यह कोई अनोखी वा अनहोनी बात नहीं है। कुपुत्र तो हो सकता है और होता ही है, पर क्या कहीं कुमाता भी होती है? तू यों ही धमका रही है, मुझे छोड़ेगी नहीं। मैं मानता हूँ कि तेरी किसी भी आज्ञा का पालन नहीं कर रहा हूँ। अवश्य ही मैं एक महान् अपराधी हूँ, पर अपराधी हूँ तो तेरा और अनाज्ञाकारी हूँ तो तेरा। हूँ मैं सर्वथा तेरी ही। तेरा स्वभाव तो, माँ! प्यार करने का ही है न? सरले! तू तो प्यार दुलार करना ही जानती है न? तो फिर यह सन्तति त्याग तुझे शोभा देगा? अच्छा, थोड़ी देर को तू अब छोड़ ही देख। तू ऐसा कर न सकेगी। तेरे लिये, माँ, यह असंभव है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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