प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 318

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मातृ भक्ति

एक बार फिर कहूँगा कि माता ही हरि कृपा है और हरि कृपा हो माता है। गोसाईँ तुलसीदास जी भी तो इस सिद्धांत का समर्थन कर रहे हैं-

कबहुँक, अब! अवसर पाइ।
मेरिऔ सुधि द्याइबी कछु करुन कथा चलाइ।।

माँ! कभी मौका मिले तो मेरी भी श्रीरामचंद्र जी को याद दिला देना। पहले कोई करुणा का प्रसंग छेड़ देना; बस, फिर सब बात बन जायेगी। एक तो यों ही माता अनन्त करुणामयी होती है, तिस पर ‘अम्ब’ का सरल संबोधन और ‘कछु करुन कथा चलाइ’ इन शब्दों की बेगवती करुणा तरंगिणी! क्या अब भी प्रभु का हृदय द्रवीभूत न होगा? क्या अब भी कृपा न करेंगे श्रीजानकी जीवन?

धन्य है वह हृदय, जिसमें श्रद्धा जल से सिंचित मातृ भक्ति की लता सदैव लहलही रहती है। धन्य हैं वे नेत्र, जो नित्य प्रति माता के आराध्य चरणों पर अश्रुमुक्ताओं की माला चढ़ाया करते हैं! उस करुणामयी के और भी तो अनेक सुंदर नाम हैं, पर उसके बच्चों को तो ‘माँ’ नाम ही अधिक आल्हाददायी है। वैसे तो वर्ण माला का प्रत्येक अक्षर उस आनन्दमीय अम्बा का नाम है, किन्तु ‘माँ’ शब्द की दिव्य मधुरिमा की समता कौन कर सकेगा? ‘माँ? तू हमारी माँ है’- केवल इस भावना में ही कितनी अधिक पवित्रता है, कितनी ऊँची दिव्यता है, कितनी गहरी करुणा है! अन्यत्र सर्वत्र भय है, केवल माँ की गोद ही निर्भय है। अनन्य मातृ बक्त रास प्रसाद का कैसा सुंदर प्रलाप है- ‘किसका भय है? मैं तो सदा उस आनन्दमयी माँ की गोद में खेलता रहता हूँ।’ माँ की उस वात्सल्यमयी गोद को कौन अभागा भुला सकेगा? माँ से बिछुड़कर उस स्नेहमयी गोद की किसे याद न आती होगी। देखो, श्रीकृष्ण अपनी मैया यशोदा की गोद में पुनः खेलने और ‘कन्हैया’ कहलाने को कैसे अधीर हो रहे हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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