प्रेम योग -वियोगी हरि
मातृ भक्तिएक बार फिर कहूँगा कि माता ही हरि कृपा है और हरि कृपा हो माता है। गोसाईँ तुलसीदास जी भी तो इस सिद्धांत का समर्थन कर रहे हैं- कबहुँक, अब! अवसर पाइ। माँ! कभी मौका मिले तो मेरी भी श्रीरामचंद्र जी को याद दिला देना। पहले कोई करुणा का प्रसंग छेड़ देना; बस, फिर सब बात बन जायेगी। एक तो यों ही माता अनन्त करुणामयी होती है, तिस पर ‘अम्ब’ का सरल संबोधन और ‘कछु करुन कथा चलाइ’ इन शब्दों की बेगवती करुणा तरंगिणी! क्या अब भी प्रभु का हृदय द्रवीभूत न होगा? क्या अब भी कृपा न करेंगे श्रीजानकी जीवन? धन्य है वह हृदय, जिसमें श्रद्धा जल से सिंचित मातृ भक्ति की लता सदैव लहलही रहती है। धन्य हैं वे नेत्र, जो नित्य प्रति माता के आराध्य चरणों पर अश्रुमुक्ताओं की माला चढ़ाया करते हैं! उस करुणामयी के और भी तो अनेक सुंदर नाम हैं, पर उसके बच्चों को तो ‘माँ’ नाम ही अधिक आल्हाददायी है। वैसे तो वर्ण माला का प्रत्येक अक्षर उस आनन्दमीय अम्बा का नाम है, किन्तु ‘माँ’ शब्द की दिव्य मधुरिमा की समता कौन कर सकेगा? ‘माँ? तू हमारी माँ है’- केवल इस भावना में ही कितनी अधिक पवित्रता है, कितनी ऊँची दिव्यता है, कितनी गहरी करुणा है! अन्यत्र सर्वत्र भय है, केवल माँ की गोद ही निर्भय है। अनन्य मातृ बक्त रास प्रसाद का कैसा सुंदर प्रलाप है- ‘किसका भय है? मैं तो सदा उस आनन्दमयी माँ की गोद में खेलता रहता हूँ।’ माँ की उस वात्सल्यमयी गोद को कौन अभागा भुला सकेगा? माँ से बिछुड़कर उस स्नेहमयी गोद की किसे याद न आती होगी। देखो, श्रीकृष्ण अपनी मैया यशोदा की गोद में पुनः खेलने और ‘कन्हैया’ कहलाने को कैसे अधीर हो रहे हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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