प्रेम योग -वियोगी हरि
शान्त भाववह आत्मानन्द का सुंदर सरोवर है। उसमें भगवान् के चरम कमल सदा विकसित रहते हैं। वियोग की रात्रि वहाँ कभी होती ही नहीं। सदैव प्रेम का प्रकाश रहता है। न वहाँ भय है, न रोग। न दुख है, न शोक। प्यारे के प्रेमरस की सदा ही वर्षा हुआ करती है। अमृत की नगर उसी सरोवर से निकली है। सो चकई! तू तो उसी सरोवर को चल! धन्य वह सरोवर! जेहि सर सुभग मुक्ति मुक्ताफल, सुकृत अमृत रस पीजै। आत्मा शांति ही जीवन का एक मात्र साध्य है। केवल कर्म अथवा केवल ज्ञान के द्वारा इस ‘स्वराज्य सुख’ की प्राप्ति संभव नहीं। प्रेममूलक सक्रिय ज्ञान के द्वारा ही हमें आत्मशान्ति का लाभ होगा। शान्तरसात्मक प्रेम ही बिछुड़ी हुई आत्मा को परमात्मा से मिलायगा। असत् से सत् की ओर हमें शान्तरति ही ले जायेगी। सो, भैया! अब होशियार हो जाओ। कुछ खबर है, कबके पड़े सो रहे हो? जागो, जागो, अपने खाक धन की चोरी न करा लो, प्यारे राहगीर! राही! सोवत इत कितै, चोर लगैं चहुँ पास। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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