प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्यअब तो तुम भलीभाँति समझ गये होगे कि मैं तुम्हारा सेवक तो निस्संदेह हूँ, पर सेवा करना नहीं जानता, या जानकर करना नहीं चाहता। है भी यही बात। माफ करना, मुझे नमक हरामी में ही मजा आता है। मुझे विश्वास नहीं होता कि तुम मुझे नौकरी से पृथक् क दोगे। क्या सचमुच ही अपने चरणों से मुझे अलग कर दोगे? हा हा! नाथ, ऐसा न करना. तुम्हारे कदमों की गुलामी बड़े भाग्य से मिली है। इस गुलामी को ही मैं आजादी समझता हूँ, और ऐसा समझना ही आज मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य है। एक तो तुम मुझे निकालोगे नहीं, दूसरे मान लो, निकाल भी दिया तो मैं यह द्वार छोड़कर कहीं जाऊँगा नहीं। जाने को कहीं कोई ठौर ठिकाना भी तो हो, प्रभो! तुम जहाज, मैं काग तिहारो, तुम तजि अनत न जाऊँ। इससे, सरकार, मुझे बरखास्त कर देने का विचार तो अब छोड़ ही दो। नाथ! मुझे तो इसी का आज बड़ा अभिमान है कि तुम मेरे स्वामी हो और मैं तुम्हारा सेवक हूँ। तुम चंदन हो और मैं पानी हूँ। तुम श्यामघन हो और मैं तुम्हें देख देखकर थिरकने वाला मोर हूँ। प्यारे! तुम पूर्ण चंद्र हो और मैं तुम्हारा चाह भरा चकोर हूँ। तुम दीपक हो और मैं तुम्हारे प्रेम में बलने वाली बाती हूँ। तुम मोती हो औ मैं धागा हूँ। और प्रभो! तुम सुवर्ण हो और मैं तुसमे मिलने वाला सुहागा हूँ। अपने इस अभिमान को, नाथ, मैं स्वप्न में भी न छोड़ूँगा। अब संत रैदासजी की विमल वाणी में इस मुक्ति भावना को सुनें- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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