प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 224

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और सूरदास

प्रभु! मैं सब पतितन कौ राजा।
को कर सकत बराबरि मेरी, पाप किये तरताजा।
सहज सुभाव चलै दल आगे, काम क्रोध कौ बाजा।।
निन्दा छत्र ढुरै सिर ऊपर, कपट कोट दरवाजा।
नाम मोर सुनि नरकहु काँपै, यमपुर होत अवाजा।।

मेरा अटल अचल साम्राज्य तृष्णा के देश में अवस्थित है। अनेक मनोरथ ही मेरे महारथी योद्धा हैं, जो इन्द्रियरूपी खड्गों को लिए रहते हैं। काम मेरा महामंत्री है और क्रोद है मेरा प्रतिहार। आज मैं अहंकार रूपी मत्त मातंग पर आरूढ़ होकर दिग्विज करने निकला हूँ। देखो, मेरे गर्वोन्नत मस्तक पर लोभ का विशाल छत्र तना हुआ है। असत्संगतिकी मेरी कैसी अपार सेना है। मद, मोह और दोष ही मागध और वन्दीजन हैं, जो सदा मेरा गुण गान करते रहते हैं। मेरा अजेय पाप गढ् बड़ा ही सुदृढ़ है। किस योद्धा में ऐसी शक्ति है, जो उससे मेरे पाप गढ़ का फाटक तोड़ सके?

पतितो द्वारक! तुम आज मेरी उपेक्षा करते हो! मुझे तारने में लापरवाही दिखाते हो! अच्छी बात है, किये जाओ उपेक्षा। देखता हूँ मैं आज तुम्हारी पतित पावनता। लो, होशयार हो जाओ-

आजु हौं एक एक करि टरिहौं।
कै हमहीं कै तुमहीं माधव! अपुन भरोसे लरिहौं।।

यह मानी हुई बात है कि अंत मे पराजय तुम्हारी ही होगी, इससे अपने विरद की लाज रखना चाहो तो अब भी कुछ बिगड़ा नहीं। आजमिल जैसे क्षुद्र पापियों से मुझे ऊँचा पात की मानकर फौरन ही तारने का फर्मान जारी कर दो। क्या कहा कि कुछ सोच विचारकर हुक्म देंगे? यह खूब रही! क्या आप अपनी कानून की किताब देखकर फैसला सुनाना चाहते हैं? शायद यह बार बार सोचते होंगे कि मैं कैसा पापी हूँ। अजी, कोई मामूली पापी नहीं हूँ। पापियों का एक शाहंशाह हूँ! छोड़ दो अपनी यह इंसाफ जिद, फेंक दो यह पुरानी सड़ी गली कानून की किताब। अब विचार क्या करते हो? मेरे बारे में सोचते सोचते थक जाओगे। माथे पर पसीना आ जाएगा। यह क्या हठ करते हो, साहब! सीधी तो बात है। अपने विरद की ओर देखो। मुझे तुमने जो न तारा तो, हजरत! तुम्हारा यह ‘पतितपावनता’ का विरद, लो, आज तुम्हारे हाथ से गया-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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