प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और सूरदासप्रभु! मैं सब पतितन कौ राजा। मेरा अटल अचल साम्राज्य तृष्णा के देश में अवस्थित है। अनेक मनोरथ ही मेरे महारथी योद्धा हैं, जो इन्द्रियरूपी खड्गों को लिए रहते हैं। काम मेरा महामंत्री है और क्रोद है मेरा प्रतिहार। आज मैं अहंकार रूपी मत्त मातंग पर आरूढ़ होकर दिग्विज करने निकला हूँ। देखो, मेरे गर्वोन्नत मस्तक पर लोभ का विशाल छत्र तना हुआ है। असत्संगतिकी मेरी कैसी अपार सेना है। मद, मोह और दोष ही मागध और वन्दीजन हैं, जो सदा मेरा गुण गान करते रहते हैं। मेरा अजेय पाप गढ् बड़ा ही सुदृढ़ है। किस योद्धा में ऐसी शक्ति है, जो उससे मेरे पाप गढ़ का फाटक तोड़ सके? पतितो द्वारक! तुम आज मेरी उपेक्षा करते हो! मुझे तारने में लापरवाही दिखाते हो! अच्छी बात है, किये जाओ उपेक्षा। देखता हूँ मैं आज तुम्हारी पतित पावनता। लो, होशयार हो जाओ- आजु हौं एक एक करि टरिहौं। यह मानी हुई बात है कि अंत मे पराजय तुम्हारी ही होगी, इससे अपने विरद की लाज रखना चाहो तो अब भी कुछ बिगड़ा नहीं। आजमिल जैसे क्षुद्र पापियों से मुझे ऊँचा पात की मानकर फौरन ही तारने का फर्मान जारी कर दो। क्या कहा कि कुछ सोच विचारकर हुक्म देंगे? यह खूब रही! क्या आप अपनी कानून की किताब देखकर फैसला सुनाना चाहते हैं? शायद यह बार बार सोचते होंगे कि मैं कैसा पापी हूँ। अजी, कोई मामूली पापी नहीं हूँ। पापियों का एक शाहंशाह हूँ! छोड़ दो अपनी यह इंसाफ जिद, फेंक दो यह पुरानी सड़ी गली कानून की किताब। अब विचार क्या करते हो? मेरे बारे में सोचते सोचते थक जाओगे। माथे पर पसीना आ जाएगा। यह क्या हठ करते हो, साहब! सीधी तो बात है। अपने विरद की ओर देखो। मुझे तुमने जो न तारा तो, हजरत! तुम्हारा यह ‘पतितपावनता’ का विरद, लो, आज तुम्हारे हाथ से गया- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज