प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम मैत्रीSo friend, when first I looked upon your face मित्र! जब पहली ही बार मैंने तुम्हारे चेहरे को देखा, तब वास्तव में, हमारे पारस्परिक विचार कुछ ऐसे मिल गये, जैसे एक दर्पण की प्रतिच्छाया दूसरे दर्पण पर पड़ रही हो। यद्यपि मैं यह न जानता था कि मैंने तुम्हें कब और कहाँ देखा, तो भी कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं अनेक बार तुमसे मिल चुका था, और तुमने मेरे तथा मैंने तुम्हारे मन और वाणी में, किसी अज्ञातकाल में वास किया था। यह जननान्तर सौहार्द्र नहीं, तो फिर है क्या? पर, ऐसा मित्र और ऐसी मित्रता हर किसी के भाग्य में नहीं। ऐसे चिर संबंधी मित्र की मित्रता परमपिता परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होती है। कवि के साथ मेरी भी उस विश्व विहारी प्रेम भगवान् से यही करबद्ध प्रार्थना है कि- हर चाह में डूबे हुए को मीत पूरब का कोई, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज