प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 184

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमी का मन

इसमें संदेह नहीं कि मन है महान् बलवान्! उसका निग्रह करना अति कठिन है, वह मदोन्मत्त मातंग है। निर्भय विषय वन में विचर रहा है। कौन उसे बाँधकर वश में कर सकता है? यह बात सहज तो नहीं है। कठिन अवश्य है, पर बाँधा जा सकता है। प्रेम की मजबूत जंजीरें पैरों में डाल दो, आप ही सारी निरंकुशता भूल जायगी। हाँ, यह साँकड़ ही ऐसी है-

मन मतंग मद मत्त था फिरता गहर गँभीर।
दोहरी तेहरी चौहरी परि गई प्रेम जँजीर।। - कबीर

अभी तक तो यह मन मोह पंक में ही फँसा है, प्रेम सरोवर के समीप गया ही कब है। भगवान् के चरण रूपी कमलों के वन में उसने कब क्रीड़ा की है? उस अनुराग सरोवर में एक बार प्रवेश भर कर पाय, फिर उसमें से कभी निकलने का नहीं। वह जगह ही ऐसी है।अभी तक लोक सौंदर्य पर ही तुम्हारा तुम्हारा सतृष्णमन मोहित रहा आया है, प्रेम सरोवर में इसने अभी अवगाहन किया ही कब है? अभी तक इसने रूप तरंगों के ही साथ केलि कलोल किया है, अभी यह चाह के प्रवाह में नहीं बहा है। प्रेम प्रवाह में मग्न मन कुछ और ही होता है।

सांसारिक रस तो हैं ही क्या, प्रेमहीन निर्गुण ब्रह्म रस भी उसे नीरस ही प्रतीत होता है। वेदान्तवादी महात्मा उद्धव विरहिणी व्रजांगनाओं को निर्गुम ब्रह्मोपासना आज बड़े सस्ते भाव पर बेच रहे हैं, पर वे गँवार गोपियाँ उसे मूली के पत्तों के भी भाव पर नहीं ले रही हैं। वे उसके बदले में उनका कृष्णानुरक्त मन चाहते हैं। सो असम्भव है। देना भी चाहों तो उनके पास उनका मन है कहाँ! वह तो प्यारे कृष्ण के साथ कभी का चला गया। अब उद्धव के ब्रह्म को बेचारी क्या दें! दस बीस मन तो उनके हैं नहीं! मन तो एक ही होता है-

ऊधो मन न भये दस बीस।
एक जु हुतो सो गयो स्याम संग को आराधै ईश? - सूर

जिस मन पर प्रेम का गहरा रंग चढ़ चुका, उस पर अब शुष्क, शास्त्र ज्ञान का रंग कैसे चढ़ सकेगा। कहाँ सरस प्रेम कहाँ नीरस ज्ञान!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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