प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमी का मनइसमें संदेह नहीं कि मन है महान् बलवान्! उसका निग्रह करना अति कठिन है, वह मदोन्मत्त मातंग है। निर्भय विषय वन में विचर रहा है। कौन उसे बाँधकर वश में कर सकता है? यह बात सहज तो नहीं है। कठिन अवश्य है, पर बाँधा जा सकता है। प्रेम की मजबूत जंजीरें पैरों में डाल दो, आप ही सारी निरंकुशता भूल जायगी। हाँ, यह साँकड़ ही ऐसी है- मन मतंग मद मत्त था फिरता गहर गँभीर। अभी तक तो यह मन मोह पंक में ही फँसा है, प्रेम सरोवर के समीप गया ही कब है। भगवान् के चरण रूपी कमलों के वन में उसने कब क्रीड़ा की है? उस अनुराग सरोवर में एक बार प्रवेश भर कर पाय, फिर उसमें से कभी निकलने का नहीं। वह जगह ही ऐसी है।अभी तक लोक सौंदर्य पर ही तुम्हारा तुम्हारा सतृष्णमन मोहित रहा आया है, प्रेम सरोवर में इसने अभी अवगाहन किया ही कब है? अभी तक इसने रूप तरंगों के ही साथ केलि कलोल किया है, अभी यह चाह के प्रवाह में नहीं बहा है। प्रेम प्रवाह में मग्न मन कुछ और ही होता है। सांसारिक रस तो हैं ही क्या, प्रेमहीन निर्गुण ब्रह्म रस भी उसे नीरस ही प्रतीत होता है। वेदान्तवादी महात्मा उद्धव विरहिणी व्रजांगनाओं को निर्गुम ब्रह्मोपासना आज बड़े सस्ते भाव पर बेच रहे हैं, पर वे गँवार गोपियाँ उसे मूली के पत्तों के भी भाव पर नहीं ले रही हैं। वे उसके बदले में उनका कृष्णानुरक्त मन चाहते हैं। सो असम्भव है। देना भी चाहों तो उनके पास उनका मन है कहाँ! वह तो प्यारे कृष्ण के साथ कभी का चला गया। अब उद्धव के ब्रह्म को बेचारी क्या दें! दस बीस मन तो उनके हैं नहीं! मन तो एक ही होता है- ऊधो मन न भये दस बीस। जिस मन पर प्रेम का गहरा रंग चढ़ चुका, उस पर अब शुष्क, शास्त्र ज्ञान का रंग कैसे चढ़ सकेगा। कहाँ सरस प्रेम कहाँ नीरस ज्ञान! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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