प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 185

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमी का मन

सूरदास यहकारी कामरि चढ़ै न दूजो रंग।

हमारा यह मन मोह कैसे छोड़ सकता है। यह तो जन्म से ही मोही है, निर्मोही कैसे हो सकेगा। सौंदर्योपासक तो एक नंबर का है। आँखों में किसी का सुंदर रूप समाया और यह उसका बेदाम का गुलाम बन गया।! सौंदर्योपासना का अपना स्वभाव तब कैसे छोड़ सकता है! अपने दृग दीवानों को मन महाराज भला बरखास्त कर सकता है! विहरणशील यह है ही। यह भी आदत इसकी छुड़ाई जा रही है। सो असम्भव है। एकान्तवास यह सैलानी मन कर ही नहीं सकता। यह भी कहा जाता है कि यह किसी को अपने हृदय में धारण न किया करे। न यह किसी के हृदय में रमे, न किसी को अपने हृदय में रमाये। ये सब साधनाएं इस बेचारे से सधने की नहीं। हाँ, एक रास्ता अभी हैवह यह कि-

मनमोहन सों मोह करि तूँ घनस्याम निहारि।
कुंजबिहारी सों बिहरि गिरधारी उर धारि।। - बिहारी

रे मन! तुझे मोह त्याग की आवश्यकता नहीं है। यदि तुझे किसी से मोह करना ही है, तो प्यारे मन मोहन से मोह कर। देख जगत् में कितने मोहक पदार्थ हैं, वे सब परिणाम में रंग रसहीन जँचते हैं, किन्तु विश्व मोहन श्रीकृष्ण का मोह, वस्तुतः प्रेम, सदा एकरस रहता है। सौंदर्योपासना भी मत छोड़। यदि तू किसी की सुंदरता देखना चाहता है तो श्री घनश्याम का रूप रस पान कर। उनका सौंदर्य अनन्त और नित्य है; और सौंदर्य तो अंत में क्षीण और नष्ट हो जाता है। यदि तेरी इच्छा किसी के साथ विहार करने की है तो कर, कोई रोकता नहीं। पर श्रीकुंज विहारी के साथ विहार कर। क्योंकि उस विहारी का ही विहार सदा एक सा आनन्ददायी है, और विहारों से तो अंत में विराग हो जाता है। और यदि तू किसी को हृदय में धारण करने की अभिलाषा करता है, तो कर, कोई तेरा बाधक नहीं। पर गिरिधारी को धारण कर, क्योंकि वह परम भक्त वत्सल हैं। जिसने गोवर्धनगिरि धारण करके इंद्र्र के क्रोध से व्रज की रक्षा की वही एक धारण करने योग्य है। सो, हे मन!

मनमोहन सों मोह करि तूँ घनस्याम निहारि।
कुंजबिहारी सों बिहरि गिरधारी डर धारि।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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