प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमी का मनहमारा यह मन मोह कैसे छोड़ सकता है। यह तो जन्म से ही मोही है, निर्मोही कैसे हो सकेगा। सौंदर्योपासक तो एक नंबर का है। आँखों में किसी का सुंदर रूप समाया और यह उसका बेदाम का गुलाम बन गया।! सौंदर्योपासना का अपना स्वभाव तब कैसे छोड़ सकता है! अपने दृग दीवानों को मन महाराज भला बरखास्त कर सकता है! विहरणशील यह है ही। यह भी आदत इसकी छुड़ाई जा रही है। सो असम्भव है। एकान्तवास यह सैलानी मन कर ही नहीं सकता। यह भी कहा जाता है कि यह किसी को अपने हृदय में धारण न किया करे। न यह किसी के हृदय में रमे, न किसी को अपने हृदय में रमाये। ये सब साधनाएं इस बेचारे से सधने की नहीं। हाँ, एक रास्ता अभी हैवह यह कि- मनमोहन सों मोह करि तूँ घनस्याम निहारि। रे मन! तुझे मोह त्याग की आवश्यकता नहीं है। यदि तुझे किसी से मोह करना ही है, तो प्यारे मन मोहन से मोह कर। देख जगत् में कितने मोहक पदार्थ हैं, वे सब परिणाम में रंग रसहीन जँचते हैं, किन्तु विश्व मोहन श्रीकृष्ण का मोह, वस्तुतः प्रेम, सदा एकरस रहता है। सौंदर्योपासना भी मत छोड़। यदि तू किसी की सुंदरता देखना चाहता है तो श्री घनश्याम का रूप रस पान कर। उनका सौंदर्य अनन्त और नित्य है; और सौंदर्य तो अंत में क्षीण और नष्ट हो जाता है। यदि तेरी इच्छा किसी के साथ विहार करने की है तो कर, कोई रोकता नहीं। पर श्रीकुंज विहारी के साथ विहार कर। क्योंकि उस विहारी का ही विहार सदा एक सा आनन्ददायी है, और विहारों से तो अंत में विराग हो जाता है। और यदि तू किसी को हृदय में धारण करने की अभिलाषा करता है, तो कर, कोई तेरा बाधक नहीं। पर गिरिधारी को धारण कर, क्योंकि वह परम भक्त वत्सल हैं। जिसने गोवर्धनगिरि धारण करके इंद्र्र के क्रोध से व्रज की रक्षा की वही एक धारण करने योग्य है। सो, हे मन! मनमोहन सों मोह करि तूँ घनस्याम निहारि। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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