प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहमौत यह मेरी नहीं, मेरी कजा की मौत है, ठीक है, पर यह क्या बात है, जो विरह में मतवाले प्रेमी अक्सर मरने की बात उठाया करते हैं? क्या सचमुच वे लोग, अंत में मर जाते या मर सकते हैं? इसमें संदेह नहीं कि वे मरना जानते तो हैं, पर मर नहीं सकते, क्योंकि मरना उनके वश का नहीं। उनके प्राणों को एक ओर से तो प्रिय दर्शन प्यासी आँखें रोके रहती हैं और दूसरी ओर से उनका हसरत भरा घायल दिल! अब बोलो, वे कैसे और कहाँ से निकल जायँ? नाम पाहरू दिवस निसि, ध्यान तुम्हार कपाट। क्षणमात्र को भी वह ध्यान हृदय से नहीं टलता है- चलत चितवत दिवस जागत सुपन सोवर रात। दिन रात तुम्हारा प्यारा नाम पहरा दिया करता है, तुम्हारा ध्यान अंतर्दवारका कपाट है और जहाँ तुम्हारे चरणों की ओर लगे नेत्रों ने ताला लगा रक्खा है; अब बताओ, प्राण किस मार्ग से निकलें? प्राण अब भी निकलने को अधीर तो बहुत हो रहे हैं, पर निकलें कैसे? ये हठीली आँखें जब उन्हें निकलने दें- बिरह अगिन तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माँह सरीरा।। तुम्हारा विरह अग्नि के समान है। उसमें यह रूई जैसा शरीर एक क्षण में ही जलकर भस्म हो जाय, क्योंकि मेरी साँसों की हवा उस आग को और भी प्रज्वलित कर रही है, पर पापी शरीर जलने नहीं पाता, ये स्वार्थी नेत्र निरंतर वहाँ जल बरसाते रहते हैं। कह नहीं सकते कि विरह की अग्नि क्या है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज