प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 164

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम और विरह

हाँ, भाई! सच तो कहते हैं-

‘दर्द’ अपने हाल से तुझ आगाह क्या करे,
जो साँस भी न ले सके, वह आह क्या करे?

अब तो आह से भी वह दिल बहलने का नहीं। यही हाल आसूँ का भी है। आँखों के झरने कभी के बंद हो गये। अब तो वहाँ सिर्फ एक जलन है या वह ना उम्मेदी जिसके आगे वह जोशे जुनू में मस्त विरहा घुटने टेके हुए यह कह रहा है-

सँभलने दे मुझे, ऐ ना उमेदी, क्या कयामत है,
कि दामाने खयाले यार छूटा जाय है मुझसे। - गालिब


मुझे जरा, सँभलने तो दे, मेरी ना-उमेदी! बड़ी आफ़त है। क्या करूँ, मेरे प्यारे का ध्यानरूपी दामन तेरे मारे मेरे हाथ से छूटा जा रहा है। ओह! कैसी होगी उस पगले वियोगी की नाउमेदी! जिसकी बड़ी से बड़ी उमेद ‘मरना’ हो, जरा उसकी ना उमेदी तो देखो कितनी बड़ी होगी-

मुनहसर मरने पै हो जिसकी उमेद,
ना उमेदी उसकी देखा चाहिए। -गालिब

पर यह ना उमेदी सदा ना उमेदी ही न रहेगी। इस निराशा से ही किसी दिन आशा का उदय होगा। मान लो कि विरह की निराशा में एक दिन मौत भी आ जाय, तो भी कुछ बिगड़ने का नहीं; क्योंकि वह मौत एक असाधारण मौत होगी। वह मौत, मौत की मौत होगी। अजी, कह देना उस घड़ी-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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