प्रेम योग -वियोगी हरि
दीनों पर प्रेमतब यह खूब रहा! मैं ढूँढ़ता तुझे था जब कुंज और बन में, तो क्या हमारे श्रीलक्ष्मीनारायणजी ‘दरिद्र नारायण’ हैं? इस फकीर को सदा से तो यही मालूम हो रहा है। तो क्या हम भ्रम में थे? अच्छा, अमीरों के शाही महलों में वह पैर भी नहीं रखता! मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू, तो क्या उस दीन बंधु को अब यही मंजूर है कि हम अमीर लोग, धन दौलत को लात मारकर उसकी खोज में दीन हीनों की झोपड़ियों की खाक छानते फिरें? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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