प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दासकैसा निरंकुश है मेरा यह मन मातंग! यह दुर्जय कैसे जीता जाय- हौं हारय्यौ करि जतन विविध विधि अति सै प्रबल अजै। वह लीलामय प्रेरक प्रभु ही कभी कृपाकर इसे अपने वश में करा दें तो हो सकता है; नहीं, तो नहीं। पर इस ओर भला वह क्यों देखने चले! वह तो मुझे, न जाने कबसे भुला बैठे हैं। समझ में नहीं आता कि क्यों ऐसा व्यवहार मेरे साथ किया गया- काहे तें हरि मोहिं बिसारो? लो, रह तो दो आज साफ साफ अपने मन की सारी बातें। आखिर मुझे भुला क्यों दिया, मेरे मालिक! तुमने अपने सेवकों के दोषों पर न्याय विचार किया, तो हो चुका! पर ऐसा तुम करोगे नहीं, विचाराधीश! अपने दासों के दोषों को यदि तुम मन में लाते होते, तो बड़े बड़े धर्म धुरंधरों को छोड़कर व्रज के गँवार ग्वालों के बीच क्यों बसने जाते? अछूत भीलनी के जूठे बेर क्यों खाते? दासी पुत्र विदुर के घर का साग पात क्यों आरोगते? तुम्हारे संबंध में तो यही प्रसिद्ध है कि- निज प्रभुता बिसारि जनके बस होत, सदा यह रीति। इससे तो अब यही जान पड़ता है कि तुम्हें न तो कुलीन धनी ही प्यारे हैं और न पंडित या ज्ञानी ध्यानी ही। तुम्हें तो नाथ, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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