प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 234

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और तुलसी दास

अपने दीन दुर्बल दास ही प्यारे हैं। तुम्हारा नाम ही गरीब निवाज है। पर मुझे ही क्यों अब तक नहीं अपनाया? मैं क्या कहीं का धन्ना सेठ हूँ। बात कुछ समझ में नहीं आती कि तुम्हारी कैसी रीझ है। हाँ, इतना तो समझता हूँ कि मैं तुम्हारा हूँ और तुम्हारा ही मुझ पर अखण्ड अधिकार होना चाहिए। मैं अपनी इस समझ को भ्रान्ति कैसे मान लूँ? अच्छा, तुम्हारा नहीं, तो बताओ, फिर किसका हूँ? मुझे आज तुम छोड़ रहे हो! यह क्या कर रहे हो, प्रभो! जरा याद तो करो वे दिन-

छारतें सँवारि कै पहारहूतें भारी कियो,
गारो भयो पंच में पुनीत पच्छ पाइ कै;
हौं तो जैसो जब तैसो अब, अधमाई कै कै
पेट भरौ, राम, रावरोई गुन गाइ कै।
आपने निवाजे की पै कीजै लाज महाराज!
मेरी ओर हेरि कै न बैठिए रिसाइ कै;
पालिकै कृपालु, ब्याल बालहू न मारिये, औ
काटिये न, नाथ! बिषहू कौ रूख लाइ कै।।

तुम्हारे पालित की आज यह दशा! ‘रामदास’ होकर क्या मुझे अब ‘कालिदास’ होना पड़ेगा? अपनी मुझे कोई चिन्ता नहीं। दुख इतना ही है कि नाथ, जिस हृदय भवन में तुम्हें रहना चाहिए उसमें आज चोर और लुटेरे अपना अड्डा जमाने की घात लगा रहे हैं! क्या उनकी यह ज्यादती तुम्हें सहन होगी?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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