प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दासअपने दीन दुर्बल दास ही प्यारे हैं। तुम्हारा नाम ही गरीब निवाज है। पर मुझे ही क्यों अब तक नहीं अपनाया? मैं क्या कहीं का धन्ना सेठ हूँ। बात कुछ समझ में नहीं आती कि तुम्हारी कैसी रीझ है। हाँ, इतना तो समझता हूँ कि मैं तुम्हारा हूँ और तुम्हारा ही मुझ पर अखण्ड अधिकार होना चाहिए। मैं अपनी इस समझ को भ्रान्ति कैसे मान लूँ? अच्छा, तुम्हारा नहीं, तो बताओ, फिर किसका हूँ? मुझे आज तुम छोड़ रहे हो! यह क्या कर रहे हो, प्रभो! जरा याद तो करो वे दिन- छारतें सँवारि कै पहारहूतें भारी कियो, तुम्हारे पालित की आज यह दशा! ‘रामदास’ होकर क्या मुझे अब ‘कालिदास’ होना पड़ेगा? अपनी मुझे कोई चिन्ता नहीं। दुख इतना ही है कि नाथ, जिस हृदय भवन में तुम्हें रहना चाहिए उसमें आज चोर और लुटेरे अपना अड्डा जमाने की घात लगा रहे हैं! क्या उनकी यह ज्यादती तुम्हें सहन होगी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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